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नियमसार
( हरिणी )
जयति सततं प्रत्याख्यानं जिनेन्द्रमतोद्भवं परमयमिनामेतन्निर्व्वाणसौख्यकरं परम् । सहजसमतादेवीसत्कर्णभूषणमुच्चकैः
मुनि शृणुते दीक्षाकान्तातियौवनकारणम् । । १४२ ।। एवं भेदभासं जो कुव्वइ जीवकम्मणो णिच्चं । पच्चक्खाणं सक्कदि धरिदुं सो संजदो णियमा ।। १०६ ।। निश्चयप्रत्याख्यान पूर्वक होनेवाला व्यवहारप्रत्याख्यान तो मिथ्यात्व और तीन कषाय चौकड़ी के अभाव में मुनिराजों के ही होता है। चतुर्थ और पंचम गुणस्थान के श्रावकों को भी भूमिकानुसार यथासंभव प्रत्याख्यान हो सकता है, पर मिथ्यादृष्टियों का प्रत्याख्यान तो कथनमात्र ।।१०५।।
इसके बाद टीकाकार मुनिराज एक छंद लिखते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ( हरिगीत )
अरे समतासुन्दरी के कर्ण का भूषण कहा । और दीक्षा सुन्दरी की जवानी का हेतु जो ॥
अरे प्रत्याख्यान वह जिनदेव ने जैसा कहा ।
निर्वाण सुख दातार वह तो सदा ही जयवंत है ।। १४२ ॥
मुनिवर ! ध्यान से सुनो। जिनेन्द्रदेव के मन में उत्पन्न होनेवाला यह प्रत्याख्यान निरन्तर जयवंत है । यह प्रत्याख्यान; उत्कृष्ट संयम को धारण करनेवाले वीतरागी मुनिराजों को मुक्तिसुख को प्राप्त करानेवाला है, सहज समतादेवी के सुन्दर कानों का उत्कृष्ट आभूषण है और तेरी दीक्षारूपी प्रिय स्त्री के अतिशय यौवन का कारण है ।
इस छन्द में निश्चयप्रत्याख्यान के महत्त्व को दर्शाया गया है, उसके गीत गाये हैं। कहा गया है कि वह निरंतर जयवंत वर्तता है । यह निश्चयप्रत्याख्यान वीतरागी सन्तों को अतीन्द्रिय आनन्द प्राप्त कराने वाला है, समतादेवी के कानों का उत्कृष्ट आभूषण है और तेरी दीक्षारूपी पत्नी को सदा युवा रखने का कारण है। इसलिए हे मुनिजनो ! तुम इस निश्चयप्रत्याख्यान को अत्यन्त भक्तिभाव से धारण करो ।। १४२ ।।
नियमसार शास्त्र के इस निश्चयप्रत्याख्यानाधिकार की यह अंतिम गाथा है, इसमें अधिकार का उपसंहार किया गया है। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न