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निश्चयप्रत्याख्यानाधिकार
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तथा समयसारव्याख्यायांचह्न
प्रत्याख्याय भविष्यत्कर्म समस्तं निरस्तसंमोहः।
आत्मनि चैतन्यात्मनि निष्कर्मणि नित्यमात्मना वर्ते ।।४७।। तथा हि ह्न
(मंदाक्रांता) सम्यग्दृष्टिस्त्यजति सकलं कर्मनोकर्मजातं प्रत्याख्यानं भवति नियतं तस्य संज्ञानमूर्तेः । सच्चारित्राण्यघकुलहराण्यस्य तानि स्युरुच्चैः तं वंदेहं भवपरिभवक्लेशनाशाय नित्यम् ।।१२७।।
(रोला) नष्ट हो गया मोहभाव जिसका ऐसा मैं।
करके प्रत्याख्यान भाविकर्मों का अब तो।। वर्त रहा हूँ अरे निरन्तर स्वयं स्वयं के।
शुद्ध बुद्ध चैतन्य परम निष्कर्म आत्म में ||४७|| जिसका मोह नष्ट हो गया है ऐसा मैं अब भविष्य के समस्त कर्मों का प्रत्याख्यान करके चैतन्यस्वरूप निष्कर्म आत्मा में आत्मा से ही निरन्तर वर्त रहा हूँ।
इस कलश में तो यह बात स्पष्टरूप से सामने आ जाती है कि आत्मध्यान ही वास्तविक प्रत्याख्यान है; क्योंकि इसमें तो साफ-साफ शब्दों में कहा गया है कि प्रत्याख्यान करके अब मैं तो आत्मा में ही वर्त रहा हूँ||४७|| इसके बाद टीकाकार तथाहि' ह्न लिखकर एक छन्द स्वयं लिखते हैं; जो इसप्रकार है ह्न
(हरिगीत) जो ज्ञानि छोड़े कर्म अर नोकर्म के समुदाय को। उस ज्ञानमूर्ति विज्ञजन को सदा प्रत्याख्यान है। और सत् चारित्र भी है क्योंकि नाशे पाप सब |
वन्दन करूँ नित भवदुखों से मुक्त होनेके लिए।।१२७|| जो सम्यग्दृष्टि समस्त कर्म-नोकर्म के समूह को छोड़ता है; उस सम्यग्ज्ञान की मूर्ति को सदा प्रत्याख्यान है। उसे पापसमूह का नाश करनेवाला सम्यक्चारित्र भी अतिशयरूप होता है। भव-भव में होनेवाले क्लेशों का नाश करने के लिए उसे मैं नित्य वंदन करता १. समयसार : आत्मख्याति, छन्द २२८