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परमार्थप्रतिक्रमणाधिकार तथा हि ह्र
(मंदाक्रांता )
आत्मध्यानादपरमखिलं घोरसंसारमूलं ध्यानध्येयप्रमुखसुतप: कल्पनामात्ररम्यम् । बुद्ध्वा धीमान् सहजपरमानन्दपीयूषपूरे निर्मज्जन्तं सहजपरमात्मानमेकं प्रपेदे ।। १२३ ।।
लिए समयसार गाथा ३०६ व ३०७ एवं उनकी आत्मख्याति टीका व उसमें समागत कलशों का अध्ययन सूक्ष्मता से किया जाना चाहिए। उक्त प्रकरण संबंधी अनुशीलन का अध्ययन भी उपयोगी रहेगा ।। ४४।।
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इसके बाद 'तथा चोक्तं समयसारव्याख्यायाम् ह्न तथा समयसार की आत्मख्याति नामक टीका में कहा है' ह्न ऐसा लिखकर एक छन्द प्रस्तुत करते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है
(रोला ) प्रतिक्रमण भी अरे जहाँ विष-जहर कहा हो ।
अमृत कैसे कहें वहाँ अप्रतिक्रमण को ॥ अरे प्रमादी लोग अधोऽधः क्यों जाते हैं ?
इस प्रमाद को त्याग ऊर्ध्व में क्यों नहीं जाते ? || ४५ ॥
जहाँ प्रतिक्रमण को भी विष कहा हो; वहाँ अप्रतिक्रमण अमृत कहाँ से हो सकता है, कैसे हो सकता है ? तात्पर्य यह है कि प्रमाददशारूप अप्रतिक्रमण अमृत नहीं है । आश्चर्य की बात तो यह है कि ऐसी स्थिति होने पर भी लोग नीचे-नीचे ही गिरते हुए प्रमादी क्यों होते हैं; निष्प्रमादी होकर ऊपर-ऊपर ही क्यों नहीं चढ़ते ?
उक्त कथन का सार यह है कि अशुभभावरूप जो अप्रतिक्रमण है, पाप प्रवृत्ति करके भी पश्चात्ताप नहीं करने रूप जो वृत्ति है; वह तो महा जहर है और सर्वथा त्याज्य है ।
प्रमादवश होनेवाले अपराधों के प्रति पश्चात्ताप के भाव होने रूप जो प्रतिक्रमणादि हैं; वे पाप की अपेक्षा व्यवहार से अमृतकुंभ हैं, कथंचित् करने योग्य हैं।
शुभाशुभभाव से रहित शुद्धोपयोगरूप जो निश्चयप्रतिक्रमण या अप्रतिक्रमणादि हैं, वे साक्षात् अमृतकुंभ हैं, सर्वथा ग्रहण करने योग्य हैं; मुक्ति के साक्षात् कारण हैं ॥४५॥
इसके बाद टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव एक छन्द स्वयं लिखते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है