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परमार्थप्रतिक्रमणाधिकार
अत्र उन्मार्गपरित्याग: सर्वज्ञवीतरागमार्गस्वीकारश्चोक्तः । यस्तु शंकाकांक्षाविचिकित्साऽन्यदृष्टिप्रशंसासंस्तवमलकलंकपंकनिर्मुक्तः शुद्धनिश्चयसदृष्टिः बुद्धादिप्रणीतमिथ्यादर्शनज्ञानचारित्रात्मकं मार्गाभासमुन्मार्गं परित्यज्य व्यवहारेण महादेवाधिदेवपरमेश्वरसर्वज्ञवीतरागमार्गे पंचमहाव्रतपंचसमितित्रिगुप्तिपंचेन्द्रियनिरोधषडावश्यकाद्यष्टाविंशतिमूलगुणात्मके स्थिरपरिणामं करोति, शुद्धनिश्चयनयेन सहजबोधादिशुद्धगुणालंकृते सहजपरमचित्सामान्यविशेषभासिनि निजपरमात्मद्रव्ये स्थिरभावं शुद्धचारित्रमयं करोति, स मुनिर्निश्चयप्रतिक्रमणस्वरूप इत्युच्यते, यस्मान्निश्चयप्रतिक्रमणं परमतत्त्वगतं तत एव स तपोधन: सदा शुद्ध इति ।
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जो जीव उन्मार्ग को छोड़कर जिनमार्ग में स्थिरभाव करता है, वह जीव ही प्रतिक्रमण कहा जाता है; क्योंकि वह प्रतिक्रमणमय है ।
इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
“यहाँ उन्मार्ग के त्याग और सर्वज्ञ वीतराग द्वारा प्रणीत जिनमार्ग की स्वीकृति निरूपण है। शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, अन्यदृष्टि प्रशंसा और अन्यदृष्टि संस्तव' रूप मलकलंकरूपी कीचड़ से रहित जो शुद्धनिश्चयसम्यग्दृष्टि जीव; बुद्धादिप्रणीत मिथ्यादर्शनज्ञान-चारित्रात्मक मार्गाभासरूप उन्मार्ग को छोड़कर; व्यवहार से महादेवाधिदेव, परमेश्वर, सर्वज्ञ- वीतरागप्रणीत मार्ग में पाँच महाव्रत, पाँच समिति, तीन गुप्ति, पाँच इन्द्रियों का निरोध, छह आवश्यक इत्यादि अट्ठाईस मूलगुणस्वरूप व्यवहारमार्ग में स्थिर परिणाम करता है और शुद्धनिश्चयनय से सहज - ज्ञानादि शुद्ध गुणों से अलंकृत सहज परमचैतन्यसामान्य तथा चैतन्यविशेष जिसका प्रकाश है ह्र ऐसे निजात्मद्रव्य में शुद्धचारित्रमय स्थिरभाव करता है; वह मुनि निश्चय प्रतिक्रमणस्वरूप कहा जाता है; क्योंकि उसे परमतत्त्वगत निश्चयप्रतिक्रमण है; इसलिए वह तपोधन सदा शुद्ध है।"
उक्त सम्पूर्ण कथन का सार यह है कि उन्मार्ग को छोड़कर वीतरागी - सर्वज्ञ द्वारा प्रणीत जिनमार्ग को धारण करना ही प्रतिक्रमण है। तात्पर्य यह है कि शंका- कांक्षा आदि दोषों से रहित निश्चय सम्यग्दृष्टि जीव जब जिनेन्द्रकथित महाव्रतादि धारण करनेरूप व्यवहारमार्ग और अपने भगवान आत्मा के श्रद्धान, ज्ञान और रमणतारूप निश्चयमार्ग को धारण करता है; तब मुनिदशा को प्राप्त वह निश्चय सम्यग्दृष्टि स्वयं ही प्रतिक्रमणस्वरूप होता है ॥ ८६ ॥
इसके बाद टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव 'तथा चोक्तं प्रवचनसार व्याख्यायां' ह्न तथा प्रवचनसार की तत्त्वप्रदीपिका टीका में भी कहा है ह्न ऐसा कहकर एक छन्द उद्धृत करते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र
१. मन से मिथ्यादृष्टियों की महिमा करना अन्यदृष्टि प्रशंसा है। २. वचन से मिथ्यादृष्टियों की महिमा करना अन्यदृष्टि संस्तव है ।