________________
परमार्थप्रतिक्रमणाधिकार
तथा हित
(मालिनी) अपगतपरमात्मध्यानसंभावनात्मा
नियतमिह भवार्त:सापराधः स्मृतः सः। अनवरतमखंडाद्वैतचिद्भावयुक्तो
भवति निरपराधः कर्मसंन्यासदक्षः ।।११२ ।। इसके बाद टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव ‘उक्तं हि समयसार व्याख्यायां च ह्न समयसार की व्याख्या आत्मख्याति टीका में भी कहा है' ह्र लिखकर एक छन्द उद्धृत करते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न
(हरिगीत) जो सापराधी निरन्तर वेकर्मबंधन कर रहे। जो निरपराधी वे कभी भी कर्मबंधन ना करें। अशुद्ध जाने आतमा कोसापराधी जन सदा।
शुद्धात्मसेवी निरपराधी शान्ति सेवें सर्वदा ||४०|| अपराधी आत्मा अनन्त पौद्गलिक कर्मों से बंधन को प्राप्त होता है और निरपराधी आत्मा बंधन को कभी स्पर्श भी नहीं करता। अज्ञानी आत्मा तो नियम से स्वयं को अशुद्ध जानता हआ, अशद्ध मानता हआ और अशुद्ध भावरूप परिणमित होता हआ सदा अपराधी ही है; किन्तु निरपराधी आत्मा तो सदा शुद्धात्मा का सेवन करनेवाला ही होता है।॥४०॥
इसप्रकार इस कलश में मात्र इतना ही कहा गया है कि पर में एकत्व-ममत्व धारण करनेवाला अपराधी आत्मा निरन्तर बंध को प्राप्त होता है और शुद्धात्मसेवी आत्मा अर्थात् अपने आत्मा में ही एकत्व-ममत्व धारण कर उसमें ही जमने-रमनेवाला आत्मा कर्मबंधन को प्राप्त नहीं होता। इसलिए शद्धात्मा का सेवन निरन्तर किया जाना चाहिए क्योंकि निरपराधी होने का एकमात्र यही उपाय है।।४०||
इसके बाद टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव 'तथाहि' लिखकर एक छन्द स्वयं लिखते हैं: जिसका पद्यानवाद इसप्रकार है ह्न
(हरिगीत) परमात्मा के ध्यान की संभावना से रहित जो। संसार पीड़ित अज्ञजन वे सापराधी जीव हैं।। अखण्ड अर अद्वैत चेतनभाव से संयुक्त जो। निपुण हैं संन्यास में वे निरपराधी जीव हैं।।११२||