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नियमसार
तथा हि ह्न
(आर्या) शीलमपवर्गयोषिदनंगसुखस्यापि मूलमाचार्याः।
प्राहुर्व्यवहारात्मकवृत्तमपि तस्य परंपरा हेतुः ।।१०७।। यद्यपि यह बात तो जिनवाणी में अनेक स्थानों पर प्राप्त हो जाती है कि सम्यग्दर्शनज्ञान के बिना सम्यक्चारित्र हो ही नहीं सकता; तथापि यहाँ तो यह कहा जा रहा है कि जिसप्रकार कोठार में रखा बीज उगता नहीं, बढ़ता नहीं, फलता भी नहीं है। उगने, बढ़ने
और फलने के लिए उसे उपजाऊ मिट्टीवाले खेत में बोना आवश्यक है, उसे आवश्यक खाद-पानी दिया जाना भी आवश्यक है।
उसीप्रकार चारित्र को धारण किये बिना सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान कोठार में रखे हुए बीज के समान निष्फल हैं, मुक्तिरूपी फल को प्राप्त कराने में समर्थ नहीं है। इसलिए सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान से मण्डित जीवों को जल्दी से जल्दी सम्यक्चारित्र धारण करना चाहिए||३६||
इसके उपरान्त टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव एक छन्द स्वयं भी लिखते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न
(अडिल्ल) आत्मरमणतारूप चरण ही शील है।
निश्चय का यह कथन शील शिवमूल है।। शुभाचरण मय चरण परम्परा हेतु है।
सूरिवचन यह सदा धर्म का मूल है।।१०७।। आचार्यों ने शील को मुक्तिसुन्दरी के अनंगसुख का मूल कहा है और व्यवहारचारित्र को भी उसका परम्परा कारण कहा है।
अनंग का अर्थ कामदेव भी होता है और अंगरहित अर्थात् अशरीरी भी होता है। यद्यपि लोक में सुन्दरियों का सुख काममूलक होता है; तथापि यहाँ यह कहा जा रहा है कि शील अर्थात् निश्चयचारित्रधारियों को मुक्तिसुन्दरी का अनंग (अशरीरी) सुख प्राप्त होता है।
यह एक विरोधाभास अलंकार का प्रयोग है; क्योंकि इसमें विरोध का आभास तो हो रहा है, पर विरोध है नहीं। निश्चयचारित्र अर्थात् शीलधारियों को किसी कामिनी के कामवासना संबंधी सुख प्राप्त होने में विरोध है, विरोधाभास है; परन्तु उक्त विरोध का परिहार यह है कि मुक्तिसुन्दरी का अनंग सुख अर्थात् मुक्ति में प्राप्त होने वाला अशरीरी अतीन्द्रिय सुख शीलधारियों को प्राप्त होता है।