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तथा चोक्तं श्रीवादिराजदेवै: ह्न
तथा हि ह्न
( शार्दूलविक्रीडित ) पंचाचारपरान्नकिंचनपतीन्नष्टकषायाश्रमान् चंचज्ज्ञानबलप्रपंचितमहापंचास्तिकायस्थितीन् । स्फाराचंचलयोगचंचुरधियः सूरीनुदंचद्गुणान् अंचामो भवदुःखसंचयभिदे भक्तिक्रियाचंचवः ।। ३५ ।।
( हरिणी ) सकलकरणग्रामालंबाद्विमुक्तमनाकुलं स्वहितनिरतं शुद्धं निर्वाणकारणकारणम् । शमदमयमावासं मैत्रीदयादममंदिरं निरुपमिदं वंद्यं श्रीचन्द्रकीर्तिमुनेर्मन: ।। १०४ ।।
( हरिगीत ) अकिंचनता के धनी परवीण पंचाचार में।
अर जितकषायी निपुणबुद्धि हैं समाधि योग में | ज्ञानबल से बताते जो पंच अस्तिकाय हम ।
उन्हें पूजें भवदुखों से मुक्त होने के लिए ||३५||
पंचाचारपरायण, अकिंचनता के स्वामी, कषायभावों को नष्ट करनेवाले और विकसित स्थिर समाधि में निपुणबुद्धिवाले आचार्यदेव परिणमित ज्ञान के बल से पंचास्तिकाय के स्वरूप को समझाते हैं । उन उछलते हुए अनंत गुणों के धनी आचार्य भगवन्तों को सांसारिक दुःखों की राशि को भेदने के लिए, भक्तिक्रिया में कुशल हम लोग पूजते हैं । । ३५ ।।
नियमसार
इसके बाद ‘तथाहि’ लिखकर एक छन्द वे स्वयं भी लिखते हैं, जिसमें महामुनि चन्द्रकीर्तिजी की वंदना की गई है । छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न
( हरिगीत )
सब इन्द्रियों के सहारे से रहित आकुलता रहित । स्वहित में नित हैं निरत मैत्री दया दम के धनी ॥ मुक्ति के जो हेतु शम, दम, नियम के आवास जो । उन चन्द्रकीर्ति महामुनि का हृदय वंदन योग्य है ।। १०४ ॥
१. आचार्य वादिराज, ग्रंथ नाम एवं श्लोक संख्या अनुपलब्ध है।