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व्यवहारचारित्राधिकार
१७५ भगवतां सिद्धिपरंपराहेतुभूतानां सिद्धपरमेष्ठीनांस्वरूपमत्रोक्तम् । निरवशेषेणान्तर्मुखाकारध्यानध्येयविकल्पविरहितनिश्चयपरमशुक्लध्यानबलेन नष्टाष्टकर्मबंधाः; क्षायिकसम्यक्त्वाद्यष्टगुणपुष्टितुष्टाश्च; त्रितत्त्वस्वरूपेषु विशिष्टगुणाधारत्वात् परमाः; त्रिभुवनशिखरात्परतो गतिहेतोरभावात् लोकाग्रस्थिताः; व्यवहारतोऽभूतपूर्वपर्यायप्रच्यवनाभावान्नित्याः; ईदृशास्ते भगवन्तः सिद्धपरमेष्ठिन इति ।
(मालिनी) व्यवहरणनयेन ज्ञानपुंजः स सिद्धः
त्रिभुवनशिखराग्रग्रावचूडामणिः स्यात् । सहजपरमचिच्चिन्तामणौ नित्यशुद्धे ।
निवसति निजरूपे निश्चयेनैव देवः ।।१०१।। इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्न
“यहाँ सिद्धि के परम्परा हेतुभूत भगवान सिद्धपरमेष्ठी का स्वरूप कहा गया है। सम्पूर्णत: अन्तर्मुखाकार, ध्यान-ध्येय के विकल्पों से रहित, निश्चय परम शुक्लध्यान के बल से अष्टकर्मों के बंधन को नष्ट करनेवाले; क्षायिक सम्यक्त्वादि अष्टगुणों की पुष्टि से तुष्ट; विशिष्ट गुणों के धारक होने से तत्त्व के तीन स्वरूपों में परम; तीन लोक के शिखर के आगे गतिहेतु का अभाव होने से लोकाग्र में स्थित; व्यवहार से अभूतपूर्व पर्याय से च्युत न होने के कारण नित्य ह्न ऐसे वे भगवन्त सिद्ध परमेष्ठी होते हैं।"
गाथा में सिद्ध भगवान की विशेषताओं को बताने के लिए जिन-जिन विशेषणों का प्रयोग किया गया है; टीका में उक्त सभी विशेषणों की हेतु सहित सार्थकता सिद्ध की गई है।
कहा गया है कि आठ कर्मों के बंधन से मुक्त सिद्ध भगवान क्षायिक सम्यक्त्वादि अष्टगुणों से सम्पन्न हैं; लोकाग्र में स्थित हैं, परम हैं, नित्य हैं, लौटकर कभी संसार में नहीं आवेंगे। उन्होंने यह अवस्था ध्यान-ध्येय के विकल्पों से पार अन्तर्मुख शुक्लध्यान के बल से प्राप्त की है। वे सिद्ध भगवान हमारे आदर्श हैं; क्योंकि हमें उन्हीं जैसा बनना है।।७२|| ___टीका के उपरान्त टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव तीन छन्द स्वयं लिखते हैं; जिनमें से पहले छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र
(दोहा) निश्चय से निज में रहें नित्य सिद्ध भगवान |
तीन लोक चूडामणी यह व्यवहार बखान ||१०१|| व्यवहारनय से ज्ञानपुंज वे सिद्ध भगवान तीन लोकरूपी पर्वत की चोटी के ठोस चूड़ामणि हैं और निश्चयनय से सहज परमचैतन्य चिंतामणिस्वरूप नित्य शुद्ध निजरूप में वास करते हैं।