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तथा चोक्तमेकत्वसप्ततौ ह्र
( मंदाक्रांता ) आत्मा भिन्नस्तदनुगतिमत्कर्म भिन्नं तयोर्या प्रत्यासत्तेर्भवति विकृतिः साऽपि भिन्ना तथैव । कालक्षेत्रप्रमुखमपि यत्तच्च भिन्नं मतं मे भिन्नं भिन्नं निजगुणकलालंकृतं सर्वमेतत् ।। २३ ।।
नियमसार
त्रस जीवों के कर्मचेतना सहित कर्मफलचेतना की प्रधानता होती है; क्योंकि पर में एकत्व-ममत्व होने से वे उनमें कुछ न कुछ करने और उन्हें भोगने के भावों में उलझे रहते हैं ।
टीका में अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में लिखा गया है कि कारणपरमात्मा और कार्यपरमात्मा को शुद्धज्ञानचेतना होती है। यह तो स्पष्ट ही है कि कारणपरमात्मा तो उस त्रिकाली ध्रुव भगवान आत्मा को कहते हैं कि जो निगोद से लेकर मोक्ष तक के सभी जीवों के सदा विद्यमान है। यही कारण है कि वह शुद्धज्ञानचेतना सभी जीवों में विद्यमान है और सभी को परम उपादेय है; क्योंकि उसके आश्रय से ही यह संसारी आत्मा सिद्ध बनता है ।
उक्त कारणपरमात्मा के आश्रय से जो अरहंत-सिद्धरूप परमात्म दशा प्रगट होती है; उसे कार्यपरमात्मा कहते हैं । इसप्रकार हम देखते हैं कि यहाँ कर्मचेतना और कर्मफलचेतना की मुख्यतावाले अज्ञानी जीवों और शुद्धज्ञानचेतनावाले अरहंत - सिद्धरूप पूर्ण ज्ञानियों की चर्चा तो की; किन्तु साधकदशा में विद्यमान जीवों की बात नहीं की ॥४५-४६।।
मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव इसके बाद 'तथा एकत्वसप्तति में भी कहा है' ह्न ऐसा लिखकर एक छन्द प्रस्तुत करते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है
(रोला ) जड़ कर्मों से भिन्न आतमा होता है ज्यों ।
भावकर्म से भिन्न आतमा होता है त्यों ।। सभी स्वयं के गुण-पर्यायों से अभिन्न हैं ।
परद्रव्यों से भिन्न सदा सब ही होते हैं ||२३||
आचार्य पद्मनन्दी कहते हैं कि मेरा मत (मन्तव्य) ऐसा है कि जिसप्रकार आत्मा भिन्न है और उसका अनुगमन करनेवाला कर्म भिन्न है; उसीप्रकार आत्मा और कर्म की अति निकटता से जो विकार होता है, वह भी आत्मा से भिन्न ही है तथा काल-क्षेत्रादिक जो भी हैं, वे सभी आत्मा से भिन्न हैं । अपनी-अपनी गुण कला से अलंकृत ये सभी भिन्न-भिन्न ही हैं । तात्पर्य यह है कि अपने-अपने गुण-पर्यायों से अभिन्न सभी द्रव्य परस्पर अत्यन्त भिन्न-भिन्न हैं । १. पद्मनन्दिपंचविंशतिका, एकत्वसप्तति अधिकार, छन्द ७९