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नियमसार
वर्णरसगंधस्पर्शाः स्त्रीपुंनपुंसकादिपर्यायाः। संस्थानानि संहननानि सर्वे जीवस्य नो सन्ति ।।४५।। अरसमरूपमगंधमव्यक्तं चेतनागुणमशब्दम् ।
जानीह्यलिंगग्रहणं जीवमनिर्दिष्टसंस्थानम् ।।४६।। इह हि परमस्वभावस्य कारणपरमात्मस्वरूपस्य समस्तपौद्गलिकविकारजातं न समस्तीत्युक्तम् । निश्चयेन वर्णपंचकं, रसपंचकं, गन्धद्वितयं, स्पर्शाष्टकं, स्त्रीपुंनपुंसकादिविजातीय विभावव्यंजनपर्याया:, कुब्जादिसंस्थानानि, वज्रर्षभनाराचादिसंहननानि विद्यते पुद्गलानामेव, न जीवानाम् । संसारावस्थायां संसारिणो जीवस्य स्थावरनामकर्मसंयुक्तस्य कर्मफलचेतना भवति, त्रसनामकर्मसनाथस्य कार्ययुतकर्मफलचेतना भवति । कार्यपरमात्मन: कारणपरमात्मनश्च शुद्धज्ञानचेतना भवति । अत एव कार्यसमयसारस्य वा शुद्धज्ञानचेतना सहजगाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न
(हरिगीत ) स्पर्श रस गंध वर्ण एवं संहनन संस्थान भी। नर, नारि एवं नपुंसक लिंग जीव के होते नहीं।।४५ ।। चैतन्यगुणमय आतमा अव्यक्त अरस अरूप है।
जानो अलिंगग्रहण इसे यह अर्निदिष्ट अशब्द है।।४६।। वर्ण, रस, गंध, स्पर्श और स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकदेव आदि पर्यायें तथा संस्थान और संहनन है ये सब जीव के नहीं हैं।
इस जीव को अरस, अरूप, अगंध, अव्यक्त, अशब्द और चेतना गुणवाला, अनिर्दिष्ट संस्थान और अलिंगग्रहण जानो।
इन गाथाओं का भाव टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्न
“यहाँ इन दो गाथाओं में ऐसा कहा है कि परमस्वभावभूत कारणपरमात्मा का स्वरूप समस्त पौद्गलिक विकार समूह से रहित है। निश्चय से पाँच वर्ण, पाँच रस, दो गंध, आठ स्पर्श और स्त्री, पुरुष, नपुंसकादि विजातीय विभावव्यंजनपर्यायें तथा कुब्जादि संस्थान, वज्रर्षभनाराचादि संहनन पुद्गलों के ही हैं, जीवों के नहीं। संसारदशा में स्थावर नामकर्मयुक्त संसारी जीवों के अर्थात् स्थावर जीवों के कर्मफलचेतना होती है, त्रसनामकर्मयुक्त संसारी जीवों के अर्थात् त्रस जीवों के कार्य सहित अर्थात् कर्मचेतना सहित कर्मफलचेतना होती है। कार्यपरमात्मा और कारणपरमात्मा के शुद्धज्ञानचेतना होती है। इसी से कार्यसमयसार अथवा कारणसमयसार को सहजफल रूप शुद्धज्ञानचेतना होती है।