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शुद्धभाव अधिकार
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णोखइयभावठाणा णो खयउवसमसहावठाणा वा। ओदइयभावठाणा णो उवसमणे सहावठाणा वा ॥४१॥ न क्षायिकभावस्थानानि न क्षयोपशमस्वभावस्थानानि वा।
औदयिकभावस्थानानि नोपशमस्वभावस्थानानि वा ॥४१।। चतुर्णां विभावस्वभावानांस्वरूपकथनद्वारेण पंचमभावस्वरूपाख्यानमेतत् । कर्मणां क्षये भवः क्षायिकभावः । कर्मणां क्षयोपशमे भवः क्षायोपशमिकभावः । कर्मणामुदये भव: औदयिकभावः। कर्मणामुपशमे भवः औपशमिकभावः । सकलकर्मोपाधिविनिर्मुक्त: परिणामे भव: पारिणामिकभावः।
एषु पंचसु तावदौपशमिकभावो द्विविधः, क्षायिकभावश्च नवविधः, क्षायोपशमिकभावोऽष्टादशभेदः, औदयिकभाव एकविंशतिभेदः, पारिणामिकभावस्त्रिभेदः।
अथौपशमिकभावस्य उपशमसम्यक्त्वम् उपशमचारित्रम् च।
उक्त छन्द में अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में यह घोषणा की गई है कि जो पुरुष शुभाशुभकर्मों से विरक्त होकर चैतन्यमय निज आत्मतत्त्व की आराधना करता है; वह अल्पकाल में मुक्ति की प्राप्ति करता है। साथ में वे यह भी कहते हैं कि उक्त कथन परमसत्य है, इसमें रंचमात्र भी शंका-आशंका की गुंजाइश नहीं है।।५७||
विगत गाथा में यह स्पष्ट करने के उपरान्त कि आत्मा में बंध व उदय के स्थान नहीं है; अब इस गाथा में यह बताते हैं कि आत्मा में उपशम, क्षयोपशम, क्षय और उदयभावों के स्थान भी नहीं हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र
(हरिगीत ) इस जीव के क्षायिक क्षयोपशम और उपशम भाव के।
एवं उदयगत भाव के स्थान भी होते नहीं।।४१|| इस जीव के न तो क्षायिकभाव के स्थान हैं और न क्षयोपशम स्वभाव के स्थान हैं, न औदयिकभाव के स्थान हैं और न उपशम स्वभाव के स्थान हैं। इस गाथा का भाव टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्न
“यह चार विभावस्वभावों के कथन के द्वारा पंचमभाव के स्वरूप का कथन है। कर्मों के क्षय से होनेवाले भाव क्षायिकभाव हैं; कर्मों के क्षयोपशम से होनेवाले भाव क्षयोपशमभाव हैं; कर्मों के उदय से होने वाले भाव औदयिक भाव हैं; कर्मों के उपशम से होनेवाले भाव
औपशमिक भाव हैं और सम्पूर्ण कर्मोपाधि से विमुक्त परिणाम से होने वाले भाव पारिणामिकभाव हैं।
इन पाँच भावों में औपशमिकभाव के दो, क्षायिकभाव के नौ, क्षयोपशमभाव के अठारह, औदयिकभाव के इक्कीस और पारिणामिक भाव के तीन भेद हैं।
उपशम सम्यक्त्व और उपशमचारित्र के भेद से औपशमिक भाव दो प्रकार के हैं।