________________
126
निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व पर्याययुक्त द्रव्य' को 'उत्तर पर्याययुक्त द्रव्य' का कारण कहा जाता है वह भी सिद्ध होता है।
उपरोक्त विवेचनों से स्पष्ट हो जाता है कि आत्मा रुचिपूर्वक निर्णय के पुरुषार्थ द्वारा अपने भावकर्मों की श्रृंखला तोड़ने के लिये पूर्ण स्वतंत्र और सक्षम है। अनादि की श्रृंखला कैसे तोड़ी जा सकेगी ?
प्रश्न-अनादि से चली आ रही विकार के उत्पादन की श्रृंखला एक समय में कैसे टूट सकेगी ?
उत्तर - प्रश्न से ऐसा लगता है कि विकार के अभाव करने को अशक्य समझकर, तू पुरुषार्थ खो बैठा है; परन्तु हे आत्मार्थी ! तेरा ऐसा मानना बिल्कुल मिथ्या है; क्योंकि विकार का अस्तित्व न तो द्रव्य में था और न भूत की पर्याय में तथा भविष्य की पर्याय में भी नहीं रहेगा; फिर इसको अनादि का कैसे माना जा सकता है। यह तो अज्ञानी आत्मा की हर समय किये जानेवाली भूल का फल है। वह भूल वर्तमान की पर्याय में उत्पन्न करता है लेकिन उस पर्याय का अस्तित्व तो एक समय का ही है फिर तो वह अवश्य ही नाश को प्राप्त हो जावेगी। लेकिन अज्ञानी आनेवाली पर्याय के समय पुनः वैसी ही भूल करता है। इसप्रकार अज्ञान द्वारा उत्पादित की हुई श्रृंखला अनादि से चलती चली आ रही है। इस अपेक्षा इसको अनादि का कहा जाता है। लेकिन इस श्रृंखला को तोड़ने के लिये अनंत काल नहीं लगता सत्पुरुषार्थ से एक समय में टूट जाती है। यह कथन सुनकर तेरी रुचि की उग्रता तीव्र होकर पुरुषार्थ उछलने लगना चाहिये। श्रीमद्राजचन्द्र ने भी कहा
निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व
127 अर्थ-जैसे अनंतकाल (लंबे काल) का स्वप्न, जाग्रत होते ही विलायमान हो जाता है। उसीप्रकार अनादि से चलता चला आ रहा अज्ञान (विकार) ज्ञान होते ही (अपने आत्मा में अपनापन आते ही) नाश हो जाता है।
वर्तमान की पर्याय में जीव किसप्रकार की भूल करता आ रहा है वह भूल तो इतनी मात्र है कि ज्ञान का स्व-पर-प्रकाशक स्वभाव होने से वह तो हर समय दोनों को जानता ही रहता है। लेकिन श्रद्धा को उनमें से अपने आत्मा को ही स्व अर्थात् अपना मानना चाहिये था परन्तु उससे विपरीत, परज्ञेयों को अपना मानने की श्रृंखलाबद्ध भूल करता चला आ रहा है। उसी के फलस्वरूप आत्मा का भावसंसार (विकार) अनादि से चलता चला आ रहा है। विकार के अनादिपने का यही इतिहास है; लेकिन कितने भी काल से चला आ रहा हो, सत्यार्थ मार्ग ग्रहण करने से नाश करने में तो मात्र एक क्षण ही लगेगा। इसलिये रुचि के साथ उग्र पुरुषार्थ पूर्वक सत्यार्थ मार्गग्रहणकर विकार का आत्यन्तिक क्षय करने के लिये कमर कसकर तैयार हो जाना चाहिये। यही सार है।
शुद्धता आगामी पर्याय में कैसे जावेगी
प्रश्न-जब पर्याय का अस्तित्व एक समय मात्र का है. और दूसरे समय तो वह व्यय हो जाती है। तब विपरीतता भविष्य की पर्याय में कैसे जावेगी?
उत्तर-यह बात तो सत्य है कि पर्याय का जीवन एक ही समय का होता है। लेकिन यह भूल जाते हैं कि सत् तो पूरा अखंड द्रव्य है, पर्याय अकेली अलग सत्ता नहीं रखती। द्रव्य एक तो अंशी है, ध्रुव भी उसका एक अंश है और उत्पाद भी अंश है और व्यय भी उसी
“अनंतकाल नो स्वप्न पण, जाग्रत थतां शमाय । तेम विभाव अनादिनों, ज्ञानथतां दूर थाय ॥"