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निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व ऐसी योग्यता होती है कि वे आत्मा के विकार रूपी कार्य के समय, स्वयं की योग्यता से कर्मरूप परिणमित होती हैं और आत्मा भी स्वयं की योग्यता से विकार रूप परिणमित होता है।
उपरोक्त समस्त चर्चा का यह सार है कि आत्मा अज्ञान दशा में हर समय नया-नया भावसंसार उत्पन्न करता है। वर्तमान पर्याय में ही अज्ञानी पर में अपनापना मानता है और ज्ञान भी परलक्ष्यी होने से उसी को स्व जानने लगता है, चारित्र उसी में लीन होने की चेष्टा करता है। सफल नहीं होने से राग-द्वेष कर लेता है। तत्समय ही पूर्वबद्ध द्रव्यकर्मों का उदय काल आता है, उस समय जितनी तीव्रता अथवा मंदता रूप भाव आत्मा करता होता है, मात्र उतने तीव्रमंद अनुभाग के उदय को तो निमित्त कहा जाता है, उससे अधिक अनुभाग की स्थितिपूर्ण हो जाने से वो बिना फल दिये निर्जरित हो जाते हैं। इसी समय आत्मा के भावों को निमित्त करके, विस्रोपचय वर्गणाएँ अपनी योग्यता से कर्म वर्गणा रूप परिणत होकर आत्मा के साथ पुन: बंधन कर लेती हैं। इतना सब कुछ कार्य मात्र एक समय में विकारी आत्मा को होता है। इसप्रकार वर्तमान वर्तते एक समय में भावसंसार खड़ा हो जाने की कहानी है।
इसप्रकार अज्ञानी को हर समय नया संसार उत्पन्न करते हुए अनंतकाल वीत गया; उसने कभी भी इस श्रृंखला (जंजीर) को एक बार भी तोड़ा नहीं। अगर कोई महापुरुष अपने सद्पुरुषार्थ के द्वारा, इस जंजीर की एक कड़ी तोड़ दे तो अनादिकाल से चलते-चले आ रहे भावसंसार का अन्त कर सकता है। द्रव्यकर्म का उदय आदि कोई रोक नहीं सकता। तात्पर्य यह है कि संसार का उत्पादन एक समय में होता है, उसका उत्पादन रोकने में भी मात्र एक समय ही तो लगेगा? अधिक की आवश्यकता ही नहीं पड़ती।
निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व
भावकर्म के अनुसार द्रव्यकर्म
कैसे परिणम जाते हैं ? प्रश्न - पूर्व में बंधे द्रव्यकर्म, वर्तमान के भावों की मंदतातीव्रता के अनुसार कैसे परिवर्तित हो जाते हैं ?
उत्तर - इसका विस्तार से विवेचन तो करणानुयोग के ग्रन्थों में किया गया है, वहाँ से समझना चाहिये। संक्षेप में इसप्रकार है कि आत्मा तो चेतन द्रव्य है, उसके जो भी भाव होंगे, उनमें तारतम्यता पड़ना स्वाभाविक है। इसलिये पूर्वबद्ध कर्मों के उदय आने के एक आवली काल पूर्व आत्मा के भावों की तारतम्यता निश्चित हो जाती है अर्थात् जो भाव एक आवली काल के बाद प्रगट होंगे, वे किस जाति के कितने मंद अथवा तीव्र प्रगट होंगे, उनका क्रम स्वत: ही उनकी योग्यता से निश्चित हो जाता है साथ ही पूर्वबद्ध द्रव्यकर्मों के अनुभाग भी अपनी योग्यता से आत्मा के भावों के अनुकूल उक्त आवली काल में हो जाते हैं। कर्मों का अनुभाग अगर आत्मा के भावों से तीव्र रस देने योग्य लेकर उदय में आया होगा तो बाकी का अनुभाग बिना फल दिये ही निर्जरित हो जावेगा। अगर कदाचित् आत्मा का भाव, उदयगत अनुभाग से तीव्रता वाला हो, तो पूर्वबद्ध द्रव्यकर्मों के अनुभाग जो उस काल उदय नहीं आने वाले थे उनके अनुभाग की उदीरणा होकर आत्मा के भावों के अनुकूल बनकर उदय में आने योग्य हो जाते हैं। इसप्रकार कर्मों के अनुभाग का आत्मा के भावों के अनुकूल होकर उदय में आने का विस्तार से विधान करणानुयोग के ग्रन्थों में हैं। वहाँ से जानना चाहिये।
उपरोक्त प्रकार की सहज व्यवस्था, क्रमबद्धपर्याय के सिद्धान्त को एवं सर्वज्ञता को सिद्ध करती है। आगम का सिद्धान्त है कि पूर्व