________________
86
निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व है। लेकिन उसको प्रथम बार तो उपशम सम्यग्दर्शन ही होगा। उनमें से अगर कोई बहुत ही उग्र पुरुषार्थी जीव तीव्र रुचि के साथ अपने त्रिकाली ज्ञायक ध्रुव में अपनत्व स्थापन करके ज्ञेयमात्र के प्रति उतनी ही उग्रता के साथ अपनत्व तोड़कर स्वरूप में एकाग्र होकर निर्विकल्प अनुभव में ऐसा संलग्न हो कि स्वरूपानुभव में उपशम के काल से भी अधिक कालतक प्रगाढ़ता बनाये रख सके तो क्षयोपशम भी प्राप्त कर सकेगा, लेकिन ऐसे जीवों की वर्तमान काल में दुर्लभता है।
___इतना अवश्य है कि निर्विकल्प आत्मानुभव के समय अतीन्द्रिय आनंद की निर्मलता और स्पष्टता में तीनों प्रकार के सम्यक्त्व में कोई अन्तर नहीं होता। सबके अनुभव का विषय समान रहता है। तथा आत्मानुभव के द्वारा जो श्रद्धा (सम्यग्दर्शन) उत्पन्न हुआ उसका विषय त्रिकालीज्ञायकभाव में अपनापन होना है; वह भी तीनों सम्यग्दृष्टियों को समान रहता है। इस प्रकार अनुभव के समय का वेदन एवं अपनेपन की श्रद्धा दोनों तो तीनों प्रकार के सम्यग्दर्शनों में समान होते हैं, इनमें अन्तर नहीं पड़ता। अन्तर है तो सम्यक् श्रद्धा के अस्तित्व की मर्यादा में है। जो सम्यक् श्रद्धा प्रगट हो चुकी है वह निर्विकल्पदशा समाप्त हो जाने पर भी सविकल्प में नष्ट नहीं होनी चाहिए। तीनों सम्यग्दृष्टियों को निर्विकल्प दशा में उत्पन्न होनेवाली अनुभूति समान होने पर भी, सविकल्पदशा हो जाने पर सम्यक् श्रद्धा के अस्तित्व रहने के काल में अन्तर रहता है। उपशम सम्यग्दर्शन के अस्तित्व का काल ही मात्र अन्तर्मुहूर्त का है, उसके पश्चात् एकबार तो वह नियम से मिथ्यादृष्टि हो जाता है अर्थात् श्रद्धा (मान्यता) विपरीत हो जाती है। क्षयोपशम सम्यग्दर्शन के अस्तित्व का कालमुहूर्त से अधिक लम्बा होता है। (उसके काल की मर्यादा का प्रमाण करणानुयोग के ग्रन्थों से जानना) क्षयोपशम सम्यग्दर्शन के विषय की निर्मलता में चल-मल-अगाढ़ता
निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व
87 रहते हुए भी, श्रद्धा के विषय में कोई अन्तर नहीं हो जाता अर्थात् अपनत्व तो त्रिकाली ज्ञायक में ही बना रहता है। लेकिन इसकी श्रद्धा का अस्तित्व अनवरत रूप से लम्बा बना रहता है। ज्ञायक सम्यग्दर्शन का काल तो सादि-अनन्तकाल है, वह तो प्रगट होने के बाद कभी भी नष्ट नहीं होता।
प्रश्न-उपशम सम्यक्त्व का काल इतना अल्प होने से उसके उत्पन्न होने का ज्ञान कैसे होगा?
उत्तर - श्रद्धा का विषय तो होता है अपनापन । अत: अपने में अपनेपन के अभाव का ज्ञान तो पर में अपनापन उत्पन्न होते ही हो जाता है। लेकिन सम्यक्श्रद्धा का जन्म तो निर्विकल्प आत्मानुभूति के काल में ही होता है। उस समय जो अतीन्द्रिय आनन्द का अंश प्रगट होता है, उस आनन्द का अनुभव (वेदन) आत्मा को होता है, वह इस प्रकार का होता है कि कभी अनन्त काल में भी नहीं हुआ। अत: ऐसे अनुभव के होने पर आत्मार्थी को ज्ञायकत्रिकालीभाव में अपनापन एवं अतीन्द्रिय आनन्द एक साथ प्रगट होते है, अत: उपशम सम्यक्त्व उत्पब होने का स्पष्ट रूप से ज्ञान आत्मार्थी को हो जाता है। लेकिन आनन्द के वेदन के साथ त्रिकाली ज्ञायकभाव में अपनेपन की सम्यक् श्रद्धा भी उपशम का काल समाप्त होते ही समाप्त होकर वापस मिथ्यादृष्टि हो जाता है।
तात्पर्य यह है कि परमे अपनापन एवं रागादि भाव मिथ्यात्व दशा में जिस प्रकार के उत्पन्न होते थे वैसे ही उत्पन्न होने लगते हैं। विचक्षणबुद्धि आत्मार्थी तो उन भावों का प्रकार पहिचानकर, अपनी रुचि की उग्रता के साथ सावधान होकर, ज्ञायक स्वभाव में अपनत्व बनाये रखने के पुरुषार्थ को लगाकर, और सफल होने पर क्षयोपशम
AMERICRORRORISEARNERREN
T ERNAस्तारमालाला
ROZASSTORapanessREASOOR
ADHANETARISRos