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निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व इन मन-वचन-काय की मर्यादा उपरोक्त तक होने का तो नियम है, इसलिये ऐसा कभी नहीं हो सकता कि निश्चय चारित्र रूप शुद्धता तो वर्तती रहे और व्यवहार चारित्र के भाव एवं क्रियाएँ चरणानुयोग कथित उपरोक्त मर्यादाओं से विपरीत होती रहें। इसप्रकार से निश्चय और व्यवहार परिणमन की सहजरूप से प्रगाढ़ मैत्री वर्तती रहती है। इसी कारण व्यवहार चारित्र को निश्चय का सहचारी भी कहा गया है।
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लेकिन अज्ञानी को अन्तरंग शुद्धि के अभाव में भी व्यवहार रूप भाव एवं काय - वचन की क्रियाएँ करते देखा जाता है; वह वास्तव में मोक्षमार्ग में वर्तनेवाले व्यवहार चारित्र की संज्ञा को प्राप्त नहीं होता वरन् वह मिथ्याचारित्र ही रहता है। उसमें वर्तते रहने वाले अज्ञानी को कर्तृत्वबुद्धि सहित हठपूर्वक अर्थात् प्रयासपूर्वक उपरोक्त क्रियाएँ पालने में बहुत सावधानी वर्तती है। और इस ही को मोक्षमार्ग मानकर, सच्चे मोक्षमार्गियों को मिथ्यात्वी मानते व कहते हैं। ऐसे जीव अपनी विपरीत मान्यता के द्वारा मिथ्यात्व को और भी दृढ़ करते हुए, अपने भावों के अनुसार शुभभाव होने पर शुभगति एवं अशुभ भाव होने पर अशुभगति का बंध करते हुए संसार में ही भ्रमते रहते हैं।
उपरोक्त निश्चय - व्यवहार की स्थिति मात्र चतुर्थ गुण स्थानवर्ती अव्रतसम्यग्दृष्टि की ही बताई है। आगे के पंचम एवं षष्टम् गुणस्थानवर्ती आत्मा को भी इस ही प्रकार उत्तरोत्तर बढ़ता हुआ निश्चय-व्यवहार चारित्र सहजरूप से वर्तता रहता है। उसका विस्तार चरणानुयोग के ग्रंथों से जानना चाहिये। संक्षेप से जानने के लिये “पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक की ग्यारह प्रतिमा" नाम की लेखक की पुस्तिका से जान लेना चाहिये । तथा छठवें - सातवे गुणस्थान में निरंतर झूलते रहने वाले साधु परमेष्टी के निश्चय चारित्र के साथ सहजरूप से वर्तनेवाले व्यवहार चारित्र की मैत्री किस प्रकार वर्तती है, उसका विस्तार श्री प्रवचनसार
निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व
की चरणानुयोगचूलिका आदि अन्य आचरण ग्रन्थों से जानना चाहिये । संक्षेप जानना हो तो लेखक की " णमो लोए सव्वसाहूणं” नाम की पुस्तिका से समझ लेना चाहिये। हमारे इस प्रकरण का विषय तो मात्र चतुर्थ गुणस्थानवर्ती श्रावक की भूमिका प्राप्त कर उसका निर्वाह करने के उपायों के समझने तक ही सीमित है।
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तात्पर्य यह है कि सहज ही अर्थात् बिना प्रयास के उठने वाले विकल्प (भाव) होते हैं, वे हमारी श्रद्धा के प्रतीक होते हैं। अर्थात् आत्मा के ज्ञायक एवं पर के प्रति अकर्तृत्वस्वभाव की श्रद्धावाले होते हैं। आत्मार्थी को सहज ही पर में अकर्तृत्व और स्व के ज्ञायकत्व के भाव (विकल्प) उठते रहते हैं । अतः ऐसे भाव निश्चय श्रद्धा होने का अनुमान कराते हैं। इसके विपरीत मिथ्यात्वी को बिना प्रयास के पर में कर्तृत्व-भोक्तृत्व आदि सम्बन्धी भाव (विकल्प) उठते रहते है। अतः इस प्रकार के भाव निश्चय श्रद्धा के अभाव अर्थात् मिथ्या श्रद्धा होने का अनुमान कराते हैं। इस प्रकार आत्मार्थी अपनी भूमिका को सहज उठने वाले विकल्पों से माप सकता है।'
सावधानी रखने योग्य भूलों के प्रकार
सम्यक्त्व उत्पन्न होने के तीन प्रकार हैं- १. उपशम सम्यक्त्व २. क्षयोपशम सम्यक्त्व ३. क्षायिक सम्यक्त्व ।
इन तीन प्रकारों में से वर्तमान पंचम काल में क्षायिक सम्यक्त्व तो उत्पन्न हो ही नहीं सकता । क्षयोपशम सम्यक्त्व को लेकर किसी जीव का पंचम काल में जन्म नहीं होगा, लेकिन उत्पन्न हो सकता है।
तात्पर्य यह है कि वर्तमान काल में जो जीव इस क्षेत्र में उत्पन्न होते हैं, वे सब मिथ्यात्व लेकर ही आते हैं; फिर यहाँ पर जो जीव सत्यार्थ विधि से पुरुषार्थ करता है। उसे सम्यग्दर्शन उत्पन्न हो सकता
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