SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 7
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ निमित्तोपादान "निश्चय-व्यवहार' और 'क्रमबद्धपर्याय' जैसे विवादास्पद विषय भी जब आगम के आलोक में सरल-सुबोध भाषा में प्रस्तुत किये गये; तब न केवल विद्वद्वर्ग एवं समाज ने उन्हें सराहा, अपितु तत्संबंधी विवाद भी लगभग समाप्त हो गये। अतः मुझे पूर्ण विश्वास है कि यदि उपादान-निमित्त का भी इसीप्रकार अनुशीलन किया जाय तो अपेक्षित लाभ अवश्य होगा। उपादान-निमित्त के सम्यक् परिज्ञान के अभाव में जिनागम में प्रतिपादित वस्तुव्यवस्था को भी सम्यक्प में समझना संभव नहीं है। उपादान-निमित्त संबंधी सम्यग्ज्ञान के अभाव में या तो निमित्त को कर्ता मान लिया जाता है या फिर उसकी सत्ता से ही इन्कार किया जाने लगता है; अत: यह आवश्यक है कि हम उपादान-निमित्त को द्वन्द्व के रूप में न देखकर, उनके पक्ष या विपक्ष में भी कुछ न कहकर, उनके स्वरूप पर ही आगम के आलोक में विचार करें। उनका स्वरूप सम्यक्प से स्पष्ट होने पर सम्पूर्ण स्थिति सहज ही स्पष्ट हो जावेगी। जगत का प्रत्येक पदार्थ परिणमनशील है। पदार्थों के इस परिणमन को पर्याय या कार्य कहते हैं। इस परिणमन को ही कर्म, अवस्था, हालत, दशा, परिणाम, परिणति आदि नामों से भी अभिहित किया जाता है। ___ कार्य कारणपूर्वक ही होता है और कार्य की उत्पादक सामग्री को ही कारण कहा जाता है। वह कार्य की उत्पादक सामग्री उपादान और निमित्तों के रूप में होती है। यही कारण है कि जिनागम में उपादान और निमित्तों की चर्चा कारणों के रूप में हुई है और इसीकारण कारण भी दो प्रकार के माने गये हैं - (१) उपादानकारण और (२) निमित्तकारण। जो स्वयं कार्यरूप में परिणमित हो, उसे उपादानकारण कहते हैं और जो स्वयं तो कार्यरूप परिणमित न हो, परन्तु कार्य की उत्पत्ति में अनुकूल होने का आरोप जिस पर आ सके, उसे निमित्तकारण कहते हैं। जैसे - घटरूप कार्य का मिट्टी उपादानकारण है और चक्र, दण्ड एवं कुम्हार आदि निमित्तकारण हैं।
SR No.009462
Book TitleNimittopadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages57
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy