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निमित्तोपादान केवलि अरु मुनिराज के, पास रहें बहु लोय । पै जाकौ सुलट्यौ धनी, क्षायिक ताकों होय ॥११॥ हिंसादिक पापन किये, जीव नरक में जाहिं । जो निमित्त नहीं काम को, तो इम काहे कहाहिं ॥१२॥ हिंसा में उपयोग जहाँ, रहे ब्रह्म का राच । तेई नरक में जात हैं, मुनि नहिं जाहिं कदाच ॥१३॥ दया-दान-पूजा किये; जीव सुखी जग होय । जो निमित्त झूठी कहौ, यह क्यों माने लोय ॥१४॥ दया-दान-पूजा भली, जगत माहि सुखकार । जहँ अनुभव को आचरण, तहँ यह बन्ध विचार ॥१५॥ यह तो बात प्रसिद्ध है, सोच देख उर माहिं । नरदेही के निमित्त बिन, जिय क्यों मुक्ति न जाहिं ॥१६॥ देह पीजरा जीव को, रोके शिवपुर जात । उपादान की शक्ति सों, मुक्ति होत रे भ्रात ॥१७॥ उपादान सब जीव पै, रोकन हारो कौन । जाते क्यों नहिं मुक्ति में, बिन निमित्त के हौन ॥१८॥ उपादान सु अनादि को, उलट रह्यो जग माहिं । सुलटत ही सूधे चले, सिद्ध लोक को जाहिं ॥१९॥ कहो अनादि निमित्त बिन, उलट रह्यो उपयोग । ऐसी बात न संभवै, उपादान तुम जोग ॥२०॥ उपादान कहे रे निमित्त, हम पै कही न जाय । ऐसे ही जिन केवली, देखे त्रिभुवन राय ॥२१॥ जो देख्यो भगवान ने, सो ही साँची आहिं । हम-तुम संग अनादि के, बली कहोगे काहिं ॥२२॥ उपादान कहे वह बली, जाको नाश न होय । जो उपजत विनशत रहे, बली कहाँ नैं सोय ॥२३॥