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कुछ प्रश्नोत्तर नहीं किया गया है; अपितु इसमें तो कर्तृत्व के बोझ से दबे इस प्राणी के बोझ को कम करने का प्रयास किया गया है। ___ कार्योत्पत्ति में निमित्त-उपादान का कितना, क्या और कैसा स्थान है - यह बात तो पहले बहुत स्पष्ट कर आये हैं । यहाँ भी तदनुसार ही समझना। यहाँ तो यह कहा जा रहा है कि तू निश्चिन्त रह, तुझे पर में कुछ नहीं करना है ; उसके निमित्त-उपादान तुझ से जुदे हैं और वे अपना-अपना काम बखूबी निभा रहे हैं, तुझे वहाँ उलझने की जरूरत नहीं है। ____ अरे भाई, निमित्त और उपादन का सही स्वरूप समझने में लौकिक और पारलौकिक लाभ ही लाभ हैं; अतः उनके स्वरूप को समझने में उपयोग को लगा, तुझे निश्चित ही लौकिक और पारलौकिक सुख-शान्ति की प्राप्ति होगी। अधिक संकल्प-विकल्पों में उलझने में कोई लाभ नहीं है।
निमित्त-उपादान के स्वरूप को स्पष्ट करने एवं उनके संबंध में उठने वाली शंकाओं-आशंकाओं के निराकरण में जो भी संभव था; प्रयास किया गया; अब और अधिक विस्तार से कुछ भी प्रयोजन नहीं है।
अतः इस पावन भावना से विराम लेता हूँ कि सभी आत्मार्थीजन निमित्त-उपादान का सही स्वरूप समझकर लौकिक और पारलौकिक सुख-शान्ति प्राप्त करें।
पर तो निमित्तमात्र है जबतक परपदार्थों में फेरफार करने की बुद्धिपूर्वक परोन्मुखी प्रवृत्तियाँ रहेंगी, तबतक सत्य को प्राप्त करना तो बहुत दूर, उसके निकट पहुँचना भी संभव नहीं है।
शुद्धात्मतत्त्वरूपी सत्य के साथ यह भी एक तथ्य है कि प्रत्येक द्रव्य स्वयं परिणमनशील है, उसे अपने परिणमन में पर के सहयोग की रंचमात्र भी आवश्यकता नहीं है। फिर भी अज्ञानी आत्मा व्यर्थ ही पर के सहयोग की आकांक्षा से व्याकुल होता है। सत्य की प्राप्ति स्वयं से, स्वयं में, स्वयं के द्वारा ही होती है। उसमें पर की कुछ भी नहीं चलती। पर तो निमित्तमात्र है।
- सत्य की खोज, पृष्ठ १३६