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________________ 46 निमित्तोपादान मैं सुखी करता दुखी करता बाँधता या छोड़ना । यह मान्यता है मूढ़मति मिथ्या निरर्थक जानना ॥ जिय बंधे अध्यवसान से शिवपथ-गमन से छूटते। गहराई से सोचो जरा पर में तुम्हारा क्या चले ? उक्त गाथाओं में जो कुछ कहा गया है, उससे यह बात अत्यन्त स्पष्ट हो जाती है कि तुम्हारा परपदार्थों में कुछ भी नहीं चलता और तुम दूसरों को सुखी-दुखी कर सकते हो या बाँध-छोड़ सकते हो अथवा दूसरे तुम्हें सुखी-दुखी कर सकते हैं या बाँध-छोड़ सकते हैं - यह मान्यता एकदम झूठी है, निरर्थक है; क्योंकि प्रत्येक प्राणी का जीवन-मरण और सुखदुख उसकी पर्यायगत योग्यता एवं उसके कर्मोदयानुसार ही होते हैं। ___यह सुनिश्चित हो जाने पर, पर के कर्तृत्व का अहंकार एवं पर से भय की भावना एकदम समाप्त हो जाती है । इसकारण लौकिक शान्ति भी प्राप्त होती है। पर के कर्तृत्व के विकल्पों के शमन से आध्यात्मिक कार्यों के लिये समय भी सहजभाव से उपलब्ध होने लगता है और लौकिक जीवन भी सुख-शान्तिमय हो जाता है। (२०) प्रश्न : इसमें तो यह कहा गया है कि अपने पूर्व कर्मोदयानुसार संयोग प्राप्त होते हैं । इसमें विचारने की बात यह है कि कर्म भी तो निमित्त ही हैं; अतः निमित्तों से कुछ नहीं होता - यह बात कहाँ रही ? उत्तर : अरे भाई ! संयोग तो अपनी योग्यतानुसार ही होते हैं, कर्म तो उनमें निमित्तमात्र हैं। यहाँ तो यह कहा जा रहा है कि प्रत्येक प्राणी के संयोग-वियोगों में, सुख-दुख में; उपादान तो वह स्वयं है और निमित्त उसी के कर्मोदय हैं; तुझे उसमें कुछ नहीं करना है। यहाँ तो उसके निमित्त-उपादान दोनों बतलाकर उसके कर्तृत्व की चिन्ता से तुझे मुक्त किया जा रहा है। तू इस ओर तो ध्यान देता नहीं और उस कथन में से निमित्त का जोर निकालता है। वह कथन निमित्त पर जोर डालने के लिये १. समयसार पद्यानुवाद, बंधाधिकार, गाथा २६६ व २६७
SR No.009462
Book TitleNimittopadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages57
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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