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________________ निमित्तोपादान - अतः निमित्त-उपादान के जानने की उपयोगिता और उनके जानने से होनेवाले लाभों से परिचित होना अत्यन्त आवश्यक है। प्रत्येक प्राणी के माथे पर सर्वाधिक बोझा कर्तृत्वबुद्धि का है। कर्तृत्व के अहंकार से ग्रस्त यह प्राणी निरन्तर कुछ न कुछ करता ही रहता है, करता ही रहना चाहता है और यह समझता है कि यदि मैं यह सब करना बन्द कर दूं तो न मालूम क्या हो जायेगा? मानो सबकुछ अस्त-व्यस्त हो जायेगा। इस कर्तृत्व के बोझ के नीचे प्रत्येक प्राणी दबा जा रहा और निरन्तर आकुल-व्याकुल हो रहा है। इसे यह विचारने की फुर्सत नहीं है कि जिस बोझ से मैं दबा जा रहा हूँ, वह बोझा वास्तविक है या कोरी कल्पनामात्र है। निमित्त-उपादान का स्वरूप समझने से यह बात अत्यन्त स्पष्ट हो जाती है कि प्रत्येक पदार्थ स्वयं के परिणमन का ही कर्ता है, अन्य पदार्थों के परिणमन में तो वह मात्र निमित्त ही होता है, करता-धरता कुछ भी नहीं है। इसप्रकार उसके माथे से पर के कर्तृत्व का बड़ा भारी बोझा सहज ही उतर जाता है और वह अपने-आप में बहुत हल्कापन अनुभव करता है। __इसीप्रकार जब वह यह जान लेता है कि मेरे भले-बुरे का सम्पूर्ण उत्तरदायित्व मेरा ही है; मेरे परिणमन में परपदार्थ तो निमित्तमात्र हैं; उनका कोई भी हस्तक्षेप मेरे में नहीं होता तो इस आत्मा का अनन्त भय तो समाप्त हो ही जाता है; दूसरों के प्रति होनेवाला द्वेषभाव भी कम हो जाता है, समाप्त-सा ही हो जाता है; क्योंकि दूसरे पदार्थों से द्वेष तो इसकारण ही होता था कि यह समझता था कि इसने मेरा बुरा किया है। जब इसने जान लिया कि मेरे बुरे होने में इसका रंचमात्र भी योगदान नहीं है तो सहजभाव से ही उसके प्रति द्वेष समाप्त हो जाता है। __ इसीप्रकार जब यह जान लिया जाता है कि कोई परपदार्थ मेरा भला भी नहीं करता है, न ही कर सकता है तो फिर परपदार्थों के साथ रागभाव भी नहीं होता। परपदार्थों से राग-द्वेष होने के पीछे मूल कारण तो यह मूढभाव-मिथ्यात्व होता है कि मैं पर का भला-बुरा कर सकता हूँ, करता हूँ या परपदार्थ मेरा भला-बुरा कर सकते हैं, करते हैं।
SR No.009462
Book TitleNimittopadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages57
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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