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निमित्तोपादान है, हमें उतना अवश्य स्वीकार करना चाहिये; पर यह भी ध्यान रखना चाहिये कि जिसप्रकार सत्समागम के महत्त्व को अस्वीकार करने में हानि है, उससे अधिक हानि उसे आवश्यकता से अधिक महत्त्व देने में है। ___ वास्तविक सत् तो अपना त्रिकाली ध्रुव भगवान आत्मा ही है, उसके समागम में ही सत् का लाभ होनेवाला है। उसकी संगति ही वास्तविक सत्संगति है। हमारी श्रद्धा का श्रद्धेय (दृष्टि का विषय) ज्ञान का ज्ञेय और ध्यान का ध्येय तो त्रिकाली सत् निज भगवान आत्मा ही बनना चाहिये।
उस त्रिकाली ध्रुवरूप सत् का स्वरूप बतानेवाले ज्ञानी धर्मात्मा ही सत्पुरुष कहलाते हैं। उनकी संगति को भी सत्संगति कहते हैं। बाकी पुण्य-पाप के प्रपंच में उलझे हुए लोग न तो सत्पुरुष हैं और न उनकी संगति सत्संगति ही है।
निश्चय सत्संगति तो त्रिकाली ध्रुव भगवान आत्मा के ज्ञान, श्रद्धान और ध्यान का ही नाम है; पर आत्मा का स्वरूप बतानेवाले आत्मानुभव की प्रेरणा देनेवाले, आत्मानुभवी पुरुषों की संगति को, उनसे त्रिकाली भगवान आत्मा का स्वरूप सुनने को व्यवहार से सत्संगति कहते हैं; मात्र उनकी सेवा-टहल करते रहने को तो व्यवहार से भी सत्संगति नहीं कहा जा सकता है।
अतः हमारा तो यही कहना है कि निश्चय सत्समागम के उद्देश्य से व्यवहार सत्समागम करना भी अच्छा ही है।
(१०) प्रश्न : क्या त्रिकाली ध्रुव भगवान आत्मा का स्वरूप बतानेवाले ही सज्जन हैं, सत्पुरुष हैं ; शेष सब सज्जन नहीं हैं, सत्पुरुष नहीं हैं? लोक में तो ऐसे हजारों महापुरुष हैं और हो गये हैं कि जो लोगों को दयादान का उपदेश देते हैं, परोपकार की प्रेरणा देते हैं; यहाँ तक कि जिन्होंने जगत के लोगों की सुख-सुविधा के लिये अपना सम्पूर्ण जीवन ही समर्पित कर दिया है। क्या वे सजन नहीं हैं, क्या वे सत्पुरुष नहीं हैं?