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________________ अध्यात्म के नय सदा ही अपना पद बताया गया है। यह कथन किसी पर्याय की अपेक्षा नहीं किया गया है, अपितु स्वभाव की अपेक्षा किया गया कथन है। प्रयोजन - यह नय कहता है कि यद्यपि पूर्ण शुद्ध क्षायिक भाव स्थायी है, संतति की अपेक्षा अनन्त है; पर अनादि का नहीं। मैं तो अनादि-अनन्त तत्त्व हूँ। अतः क्षायिक भावों रूप पूर्ण शुद्ध पर्यायों से भी पृथक्ता स्थापित कर अनादि-अनन्त त्रिकाली ध्रुव तत्त्व में एकता स्थापित करना ही इस नय का प्रयोजन है। हेयोपादेयता - इस नय का विषय बंध-मोक्ष पर्याय से रहित त्रिकाली ध्रुव सामान्य तत्त्व होने से ध्येय है, हेय नहीं। इसका विषय त्रिकाली ध्रुव शुद्धात्मा आश्रय करने की अपेक्षा उपादेय है। यह नय नयाधिराज क्यों? यह नय भेद विकल्पों का निषेध कर, अन्य द्रव्यों से पृथकता स्थापित करते हुए, आन्तरिक अखण्डता को कायम रखता है। द्रव्य की यही अखण्डता दृष्टि का विषय है, श्रद्धा का श्रद्धेय है, ध्यान का ध्येय है। इसी से आत्मानुभूति होती है, सच्चे सुख की प्राप्ति होती है, मुक्ति की प्राप्ति होती है; अतः यह नय नयाधिराज है। इसप्रकार हम देखते हैं कि निश्चयनय में इन चार भेदों में प्रथम तीन भेद पर्याय सहित वाले हैं और चौथा परमशुद्धनिश्चयनय पर्याय रहित वाला है अर्थात् परमशुद्धनिश्चयनय का कार्य अपनी पर्यायों में भी भिन्नता बताना है तथा शेष तीनों भेद अपने गुण-पर्यायों से अभिन्नता और पर के गुण पर्यायों से भिन्नता बताते हैं। यह नय जो अनादि से हैं, अनन्तकाल तक रहेगा ऐसे ज्ञान को विषय बनाता है अर्थात् पर्यायवान अशुद्धता को छोड़कर द्रव्यगत शुद्धता को विषय बनाता है। इस नय के अनुसार आत्मा राग में मिलता ही नहीं है। अल्पज्ञता और सर्वज्ञता से रहित जो जीव है, वही मैं हूँ। यही १. परमभावप्रकाशक नयचक्र, पृष्ठ-९२ परमशुद्धनिश्चयनय जीव ध्यान का ध्येय है। जब इस नय का विषय आत्मा ध्यान का ध्येय बनाता है, तब शेष सभी नय (तीन निश्चयनय + चार व्यवहारनय) व्यवहार हो जाते हैं। जैसा कि पहले कह आए हैं कि निश्चयनय के उक्त भेद न तो सर्वथा निषेध्य हैं और न सर्वथा अनिषेध्य । प्रत्येक नय अपने-अपने प्रयोजन की सिद्धि करने वाला होने से स्वस्थान में निषेध करने योग्य नहीं हैं। प्रयोजन की सिद्धि हो जाने पर उसकी उपयोगिता समाप्त हो जाती है, अतः उसका निषेध करना अनिवार्य हो जाता है। यदि उसका निषेध न करें तो उत्तरोत्तर विकास की प्रक्रिया रुक जाती है। अतः तत्संबंधी प्रयोजन की सिद्धि हो जाने पर, आगे बढ़ने के लिए आगे के प्रयोजन की सिद्धि के लिए पूर्वकथित नय का निषेध एवं आगे के नय का प्रतिपादन इष्ट हो जाता है। इसीलिए एकदेश शुद्धनिश्चयनय अशुद्धनिश्चयनय का, साक्षात्शुद्धनिश्चयनय एकदेश शुद्धनिश्चयनय और अशुद्धनिश्चयनय का तथा परम शुद्धनिश्चयनय साक्षात्शुद्ध निश्चयनय आदि पूर्व के नयों का अभाव करता हुआ उदित होता है। इसप्रकार हम देखते हैं कि - सभी नय अपने पूर्व के नयों का निषेध करते हैं; पर सबका निषेध करने वाला परमशुद्धनिश्चयनय कभी भी किसी भी नय द्वारा निषिद्ध नहीं होता, क्योंकि परम शुद्धनिश्चयनय का विषयभूत शुद्धात्म द्रव्य ही दृष्टि का विषय है। इसके आश्रय से ही आत्मानुभूति प्रगट होती है। नयों की सत्यता-असत्यता - अथवा सर्वाधिक वजनदार नय कौन? - नयों की सत्यता-असत्यता वस्तुस्वरूप में विद्यमान व्यवस्था के अनुपात में है। जिस भेदाभेद का वस्तुस्वरूप में जितना वजन है, उतनी ही सत्यता उसे विषम बनाने वाले नय में है। 25 १. परमभावप्रकाशक नयचक्र, पृष्ठ-९९ २. वही, पृष्ठ-१२२
SR No.009461
Book TitleNaychakra Guide
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuddhatmaprabha Tadaiya
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages33
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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