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अध्यात्म के नय
भेद - संबंधों की निकटता और दूरी के आधार पर यह नय दो प्रकार का होता है -
(i) उपचरित असद्भूतव्यवहारनय ।
(ii) अनुपचरितअसद्भूतव्यवहारनय ।
(i) उपचरितअसद्भूतव्यवहारनय स्वरूप और विषयवस्तु जो नय भिन्न वस्तुओं के संश्लेष रहित संबंध को विषय बनाता है, उसे उपचरित असद्भूतव्यवहारनय कहते हैं। जैसे - कुम्हार घड़ा बनाता है।
यह नय उपचार में भी उपचार करता है, क्योंकि असद्भूतव्यवहार में उपचार है।' यह नय शरीरादि की अपेक्षा जो दूरवर्ती हैं - ऐसे मकानादि के संयोगों को अपना विषय बनाता है अथवा जिनका संबंध दूर का होता है अर्थात् जो संबंधी के संबंधी होने से परस्पर संबंधित होते हैं, उनको यह नय अपना विषय बनाता है। जैसे- शरीर तो आत्मा से सीधा संबंधित है; पर माता-पिता, स्त्री-पुत्रादि, मकान आदि शरीर से संबंधित है। अतः यह इस नय के विषय बनते हैं, क्योंकि यह सभी कथन उपचार में उपचार करते हैं।
यह उपचार में उपचार सत्य, असत्य और सत्यासत्य पदार्थों में तथा स्वजातीय, विजातीय और स्वजाति विजातीय पदार्थों में किया जाता है। जैसे- देश का स्वामी कहता है कि - 'यह देश मेरा है' यह सत्य उपचरित असद्भूतव्यवहारनय है। देश में स्थित व्यक्ति कहता है कि 'देश मेरा है। - यह असत्य उपचरित असद्भूतव्यवहारनय है। और व्यापारी अर्थ का व्यापार करते हुए कहता है कि- 'धन मेरा है' - यह सत्यासत्य उपचरित असद्भूत व्यवहारनय है।
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१. 'संश्लेष रहित वस्तुओं के संबंध को विषय करने वाला उपचरित असद्भूतव्यवहारनय है। जैसे देवदत्त का धन है।' आलापपद्धति, पृष्ठ- २२८
२. 'असद्भूत व्यवहार ही उपचार है और उपचार में भी जो उपचार करता है, वह उपचरित असद्भूतव्यवहारनय है।' आलापपद्धति, पृष्ठ- २२७
३. परमभाव प्रकाशक नयचक्र, डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल, पृष्ठ- १४७
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उपचरित असद्भूतव्यवहारनय
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माँ-पिता, स्त्री-पुत्रादि, मकानादि एवं नगरादि को अपना कहने का व्यवहार इसी नय के आधार पर होता है, इसीलिए लौकिक मर्यादाएँ जैसे स्वस्त्री - परस्त्री, स्वग्रह - परिग्रह, स्वदेश-परदेश, जिनमन्दिर, शिवमन्दिर आदि के भेद कथन इसी नय के कथन हैं।
इन्हीं कथनों के आधार पर हम कहते हैं कि यह मकान देवदत्त का है, कुम्हार ने घड़ा बनाया है, अज्ञानी पंचेन्द्रियों के विषयों को भोगता है।' ज्ञानी मुनिराज उनका त्याग करते हैं। तीर्थंकर भगवान समवशरण में विराजमान हैं - आदि तीर्थंकरों की बाह्य विभूति के सभी कथन इसी नय के कथन हैं। तीर्थंकरों के माता-पिता, स्त्री-पुत्रादि का व्यवहार भी इसी नय से होता है।
उक्त सभी कथनों का भी आधार है। ये कथन सर्वथा असत्य नहीं है। लौकिक दृष्टि से देवदत्त मकान का मालिक है ही और कुम्हार का योग और उपयोग घड़ा बनाने में निमित्त हुआ ही है। भगवान के समवशरण में उपस्थित होने की बात को धार्मिक जगत में भी मान्यता प्राप्त है, क्योंकि वहाँ उनकी उपस्थिति होती ही है।
इसीप्रकार अन्य सभी कथन भी प्रथमानुयोग में व लौकिक-व्यवहार में प्रचलित हैं ही।
कर्त्ता-भोक्ता – इस नय से आत्मा पुण्य-पाप के उदय में मिलने वाले संयोगों का कर्ता-भोक्ता है अथवा जीव पंचेन्द्रियों के इष्टानिष्ट विषयों से उत्पन्न सुख-दुःख का भोक्ता है। जैसे- जीव घट, पट, रथ आदि का कर्ता है।
नाम की सार्थकता - दो द्रव्यों की एकता वस्तुतः न होकर आरोपित होती है, अतः ‘असद्भूत' है, उपचार में उपचार करने के कारण
१. बृहद्रव्यसंग्रह, गाथा ९ की संस्कृत व्याख्या
२. वही, गाथा ४५ की संस्कृत व्याख्या । ३. वही, गाथा ९ की संस्कृत व्याख्या ४. नियमसार गाथा १८ की तात्पर्यवृत्ति टीका ।