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अपनी खोज
के बीच भी रह सकता है, पर उसका ध्यान सदा आत्मा की ओर ही रहता है । खेलने-कूदने और मनोरंजन में मनुष्य भव खराब करने का तो प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता। ___जब माँ की खोज में व्यस्त बालक का मन खेल-कूद और मनोरंजन में नहीं लगता; तब आत्मा के खोजी को यह सव कैसे सुहा सकता है?
संयोग तो पुण्य-पापानुसार जैसे होते हैं, वैसे होते हैं, उनमें ही वह अपना जीवन-निर्वाह करता है । यदि पुण्ययोग हुआ तो उसे अधिकतम लौकिक सुविधायें भी उपलब्ध हो सकती हैं, रहने को राजमहल भी मिल सकता है; यद्यपि वह राजमहल में रहेगा, उसे झोंपड़ी में परिवर्तित नहीं करेगा; तथापि वह उन अनुकूल संयोगों में मग्न नहीं होता, उसका अन्तर तो निज भगवान आत्मा की आराधना में ही रत रहता है।
जिसप्रकार संध्या के पूर्व बालक को माँ मिलनी ही चाहिए; उसीप्रकार जीवन संध्या के पूर्व हमें भगवान आत्मा की प्राप्ति होना ही चाहिए-ऐसा दृढ़-संकल्प प्रत्येक आत्मार्थी का होना चाहिए; तभी कुछ हो सकता है। ___ मानलो मेला प्रात: १० बजे आरंभ हुआ था और शाम को ६ बजे समाप्त होना है। इसप्रकार कुल मेला ८ घंटे का है। मानलो हमारा जीवन भी कुल ८० वर्ष का होगा। इस हिसाब से १० वर्ष का एक घंटा हुआ। मानलो १० बजे हमारा जन्म हुआ तो ११ बजे हम १० वर्ष के हो गये। इसी प्रकार १२ बजे २० वर्ष के, १ बजे ३० वर्ष के, २ बजे ४० वर्प के, ३ बजे ५० वर्ष के, ४ बजे ६० वर्ष के, ५ बजे ७० वर्ष के और ६ बजे पूरे ८० वर्ष के हो जावेंगे।
दिन के दो बज गये हैं; पर अभी तक माँ नहीं मिली तो वह बालक आकुल-व्याकुल हो उठता है; क्योंकि उसे कल्पना है कि यदि शाम तक माँ न मिली तो उसका क्या होगा?