________________
मैं स्वयं भगवान हूँ
६७
कुछ अज्ञानीजन उन ज्ञानी धर्मात्माओं से भी कदाचित् असद्व्यवहार कर सकते हैं, करते भी देखे जाते हैं; पर यह बहुत कम होता है।
यद्यपि अभी वह वही मैला-कुचेला फटा कुर्ता पहने है, मकान भी टूटा-फूटा ही है; क्योंकि ये सब तो तब बदलेंगे, जब रुपये हाथ में
आ जावेंगे। कपड़े और मकान श्रद्धा-ज्ञान से नहीं बदले जाते, उनके लिए तो पैसे चाहिए, पैसे; तथापि उसके चित्त में आप कहीं भी दरिद्रता की हीनभावना का नामोनिशान भी नहीं पायेंगे।
उसीप्रकार जीवन तो सम्यक्चारित्र होने पर बदलेगा, अभी तो असंयमरूप व्यवहार ही ज्ञानी धर्मात्मा के देखा जाता है, पर उनके चित्त में रंचमात्र भी हीनभावना नहीं रहती, वे स्वयं को भगवान ही अनुभव करते हैं। ___ जिसप्रकार उस युवक के श्रद्धा और ज्ञान में तो यह बात एक क्षण में आ गई कि मैं करोड़पति हूँ; पर करोड़पतियों जैसे रहन-सहन में अभी वर्षों लग सकते हैं। पैसा हाथ में आ जाय, तब मकान बनना आरम्भ हो, उसमें भी समय तो लगेगा ही। उस युवक को अपना जीवन-स्तर उठाने की जल्दी तो है, पर अधीरता नहीं; क्योंकि जब पता चल गया है तो रुपये भी अब मिलेंगे ही; आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों; बरसों लगनेवाले नहीं हैं।
उसीप्रकार श्रद्धा और ज्ञान तो क्षणभर में परिवर्तित हो जाते हैं, पर जीवन में संयम आने में समय लग सकता है। संयम धारण करने की जल्दी तो प्रत्येक ज्ञानी धर्मात्मा को रहती ही है, पर अधीरता नहीं होती; क्योंकि जब सम्यग्दर्शन-ज्ञान और संयम की रुचि (अंश) जग गई है तो इसी भव में, इस भव में नहीं तो अगले भव में, उसमें नहीं तो उससे अगले भव में संयम भी आयेगा ही; अनन्तकाल यों ही जानेवाला नहीं है।
अत: हम सभी का यह परम पावन कर्त्तव्य है कि हम सब स्वयं को सही रूप में जानें, सही रूप में पहिचानें, इस बात का गहराई से