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णमोकार महामंत्र : एक अनुशीलन भासित होने लगता है; वे उस युवक के समान हीन भावना से ग्रस्त हो जाते हैं
और मुक्ति (सिद्धदशा) की कामना में पंचपरमेष्ठी के सामने गिड़गिड़ाने लगते हैं - ऐसे लोगों को मुक्ति प्राप्त नहीं होती।
दीन-हीन व्यवहार में लीन पुरुषों को मुक्ति प्राप्त नहीं होती। इस बात को बनारसीदासजी इसप्रकार व्यक्त करते हैं
लीन भयौ विवहार में उकति न उपजै कोइ।
दीनभयौ प्रभु पद जपै मुकति कहाँ सौं होइ॥ इसीकारण आचार्य कुंदकुंद भी उक्त गाथाओं में अन्य सब विकल्पों को तोड़कर निज भगवान आत्मा की शरण में जाने की बात करते हैं।
वे कहते हैं कि जब पंचपरमेष्ठी पद और सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र आतमा की ही अवस्थाएँ हैं तो फिर हम आत्मा की ही शरण में क्यों न जाएँ, यहाँवहाँ क्यों भटकें ?
अरे भाई! पर भगवान या पर्यायरूप भगवान की शरण में जानेवाले भगवानदास बनते हैं, भगवान नहीं। यदि स्वयं ही पर्याय में भगवान बनना हो तो निज भगवान आत्मा की ही शरण में जाना होगा, उसे ही जानना-पहिचानना होगा, उसमें ही अपनापन स्थापित करना होगा, उसका ही ध्यान धरना होगा, उसमें ही समा जाना होगा - इस बात को कभी भूलना नहीं चाहिए। इसप्रकार इन गाथाओं में भगवान बनने की विधि भी बता दी गई है।
इसप्रकार हम देखते हैं कि णमोकार मंत्र तो महान है ही; पर आचार्य कुन्दकुन्द की ये गाथायें भी कम महान नहीं हैं, एक अपेक्षा तो उससे भी अधिक महान हैं।
णमोकार महामंत्र में जिन्हें स्मरण किया गया है; उन पंचपरमेष्ठियों के स्मरणपूर्वक हम यही भावना भाते हैं कि
सभी आत्मार्थी भाई-बहिन निज भगवान आत्मा की शरण में जाकर, निज आत्मा में ही जमकर-रमकर अनन्त सुखी हों। - इसी मंगल भावना के साथ विराम लेता हूँ। १. नाटक समयसार निर्जराद्वार, छन्द २२