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णमोकार महामंत्र : एक अनुशीलन की विधि है, आराधना की विधि है, साधना की विधि है। निज भगवान आत्मा की यह उपासना दो प्रकार से होती है - (१) साध्यभाव से और (२) साधकभाव से।
चौथे गुणस्थान से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक साधकदशा है और सिद्ध अवस्था साध्यदशा है। अथवा चौथे गुणस्थान से बारहवें गुणस्थान तक साधकदशा है और अरहन्त और सिद्ध दशा साध्यदशा है। पर्याय में पूर्णता की प्राप्ति हो जाना साध्यदशा है और आत्मोपलब्धि होकर पूर्णता की
ओर अग्रसर होना साधकदशा है। अथवा आत्मा में उपयोग का केन्द्रित होना और फिर बाहर आ जाना - इसप्रकार बार-बार अन्दर जाना और बाहर आना साधकदशा है और उपयोग का निरन्तर आत्मोन्मुख ही रहना, बाहर आना ही नहीं साध्यदशा है। शुभोपयोग और शुद्धोपयोग में झूलना साधकदशा है और शुद्धोपयोग में अनन्तकाल तक के लिए समा जाना साध्यदशा है।
आत्मा की सिद्धदशा अमल भी है और अचल भी है; परन्तु अरहन्त अवस्था अमल तो है, पर अचल नहीं; क्योंकि उसमें योग के निमित्त से आत्मप्रदेशों में चंचलता पाई जाती है, चलाचलपना पाया जाता है। इस दृष्टि से विचार करें तो अकेली सिद्धदशा ही साध्यभाव है,आत्म ज्ञानी की शेष सभी दशाएँ साधकभाव में आती हैं। __ पूर्ण वीतरागी व सर्वज्ञ हो जाने से, अमलता प्राप्त हो जाने से तथा उपयोग के निरन्तर आत्मसन्मुख ही रहने से, निरन्तर शुद्धोपयोगी होने से जब अरहन्त भगवान को भी साध्यदशा में ले लेते हैं तो फिर उसके पहले के धर्मात्मा जीव साधकदशावाले कहे जाते हैं।
उपयोग का आत्मसन्मुख होना ही आत्मा की सच्ची उपासना है। जब वह उपयोग निरन्तर आत्मसन्मुख होता है तो उस उपासना को साध्यभाव की उपासना कहते हैं और जब वह कभी-कभी आत्मसम्मुख होता है तो उसे साधकभाव की उपासना कहते हैं।