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णमोकार महामंत्र : एक अनुशीलन हैं, इसीलिए उनके मन्दिर की कोई जरूरत नहीं है। आखिर राम हृदयों में बसे हैं न, इसलिए तो मन्दिर बनते हैं, हृदयों में नहीं होते तो, मन्दिर कौन बनाता।
प्रश्न- भारिल्ल साहब ! राम की मर्यादा को कायम रखते हुए मन्दिर बने - यह तो सही है, लेकिन जो अल्पसंख्यक लोग हैं, उनके मन में कोई भय न रहे, वे अपने को सुरक्षित समझें- इसके लिए रास्ता कैसे निकलेगा?
डॉ. साहब- रास्ता न तो न्यायालय निकाल सकता है और न राजनैतिक लोग निकाल सकते हैं। न्यायालय तो कानून की सीमाओं में बंधा है, वह इस दृष्टि से देखेगा-जमीन किसकी थी ? किसके नाम है ? क्या बनना चाहिए? क्या करना चाहिए ? वह जो निर्णय देगा, उससे सम्पूर्ण भारतीय जनमानस को संतोष हो जाएगा - इसकी कोई गारन्टी नहीं है। हो सकता है कि एक पक्ष प्रसन्न एवं दूसरा पक्ष एकदम आंदोलित हो जाए।
राजनैतिक लोग भी जो निर्णय देंगे वह उनके वोट बैंक के अनुसार होगा। एक मात्र सभी धर्मों के धर्मगुरु ही कोई रास्ता निकाल सकते हैं; क्योंकि उन्होंने अपना घर-बार छोड़कर धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए ही जीवन समर्पित किया है। वे लोग अपने विशाल हृदय से सोचें और मिल-बैठकर ऐसा निर्णय निकालें जो सबको मान्य हो, जिससे सभी को प्रसन्नता हो। निर्णय से एक पक्ष प्रसन्न एवं दूसरा पक्ष नाराज हो - यह अच्छी बात नहीं है।
मुझे विश्वास है कि सभी पक्षों के धर्मगुरु मिलकर जो भी निर्णय देंगे; उसे सम्पूर्ण भारत सहज भाव से स्वीकार कर लेगा; क्योंकि जनता तो समझौता चाहती है, शान्ति चाहती है, एकता चाहती है। __यदि हमारे धर्मगुरु ऐसा रास्ता नहीं निकाल पाते तो हमें कोई दूसरा रास्ता शेष न रहने से न्यायालय की शरण में ही जाना पड़ेगा। वहाँ पर सौ-सौ वर्ष तक मुकदमे चलते हैं और कोई निर्णय नहीं निकलता। निर्णय निकले तो भी जनमानस को मान्य नहीं होता। निर्णय निकलने तक तो कितने दंगे-फसाद हो जाते हैं। इसलिए सही निर्णय आस्थावान सन्त-धर्मगुरु ही निकाल सकते हैं।
वे सभी प्रतिज्ञा करके बैठे कि हम सभी को मान्य रास्ता निकालेंगे,