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नक्शों में दशकरण (जीव जीता-कर्म हारा)
उदय यथाकाल होता है तथा उदीरणा अयथाकाल । कर्मबन्ध के पश्चात् वह कर्मबन्ध, आवली काल तक उदीरणा आदि के अयोग्य होने से तदवस्थ (यथावस्थित) रहता है। उदीरणा उदीयमान कर्मों की ही होती है। कहा भी है - उदीरणा, उदय के होते ही होती है। उदय पुण्य का हो तो उदीरणा भी पुण्य की होगी। इस उदीरणाकरण के ४ भेद हैं - प्रकृति उदीरणा, स्थिति उदीरणा, अनुभाग उदीरणा और प्रदेश उदीरणा। उदय के प्रकरण में जो उदय-व्युच्छिति का कथन है, उसका यह भी प्रयोजन है कि जितनी प्रकृतियों की जहाँ उदय-व्युच्छिति होती है उससे आगे के गुणस्थानों में उन प्रकृतियों के उदयाभाव की तरह उनका उदीरणाऽभाव भी हो जाता है - यह दोनों में समानता है। सामान्य नियम यह है कि जहाँ जिस प्रकृति का उदय होता है, वहाँ उस प्रकृति की उदीरणा भी अवश्य होती है, अन्यत्र नहीं। साता, असाता व मनुष्यायु; इन तीन का उदय तो चौदहवें गुणस्थान के अन्त तक सम्भव है, परन्तु इनकी उदीरणा छठे गुणस्थान तक ही होती है। देवों के उत्पत्ति के समय से लेकर अन्तर्मुहूर्त काल तक सातावेदनीय, हास्य एवं रति की नियम से उदीरणा होती है, आगे अनियम से होती है। (इससे ज्ञात होता है कि देव, उत्पत्तिकाल के प्रारंभिक
अन्तर्मुहूर्त में नियम से प्रसन्न व सुखी रहते हैं।) .सातावेदनीय, हास्य व रति का उदीरणाकाल उत्कृष्ट से छह मास है। • संसारी जीव के उदयकत परिणामों की अपेक्षा उदीरणा से जो परिणाम
होते हैं, उनमें अधिक तीव्रता होती है। मरण के समय के अन्तिम आवली काल में अपनी-अपनी आयु का उदय ही होता है, उदीरणा नहीं। क्षीणकषाय के काल में दो समयाधिक आवली शेष रहने तक निद्रा-प्रचला का उदय और उदीरणा दोनों होते हैं। नारकियों में उत्पत्तिकाल से लेकर अन्तर्मुहुर्त काल तक अरति, . . . ww.mahima शोक व असाता की नियम से उदीरणा होती है।
कर्मोदय का मर्म प्रभु! कर्म का उदय तो जड़ की पर्याय है और जीव की पर्याय में जो विकारी भाव होता है, वह तो उसे छूता भी नहीं है; क्योंकि उनमें परस्पर अन्योन्याभाव है। __ प्रवचनसार की गाथा १८९ में ऐसा आता है कि शुद्धनय से आत्मा, विकार का कर्ता स्वतः है।
पंचास्तिकाय की गाथा ६२ में भी कहा है कि आत्मा की विकारी पर्याय का परिणमन अपने षट्कारकों से स्वतः है तथा अन्य कारकों से निरपेक्ष है। अर्थात् जीव की पर्याय में जो विकार का परिणमन होता है, उसे कर्म के उदय की अपेक्षा नहीं है।
जैसा कर्म का उदय आता है, उसी के अनुपात में डिग्री टू डिग्री विकार करना पड़ता है - यह तो दो द्रव्यों की एकता की बात है, जो कि सर्वथा मिथ्या है।
- प्रवचनरत्नाकर भाग-२, पृष्ठ-३७३
विभाव में स्वतंत्रता प्रवचनसार गाथा ४५ की श्री जयसेनाचार्यकृत संस्कृत टीका में तो ऐसा कहा है कि मोहकर्म का उदय होने पर भी जीव यदि स्वयं शुद्धपने परिणमे तो वह कर्म उदय में आकर खिर जाता है।
अपने वर्तमान पुरुषार्थ की जितनी योग्यता हो, उतना विकाररूप | परिणमन होता है।
- प्रवचनरत्नाकर भाग-२, पृष्ठ-३७३
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