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मोक्षमार्गप्रकाशक का सार तथा बड़े-बड़े जैन शास्त्रों का विशेष ज्ञान हो तो विशेषरूप से उसको वक्तापना शोभित हो। ऐसा भी हो; परन्तु अध्यात्मरस द्वारा यथार्थ अपने स्वरूप का अनुभव जिसको न हुआ हो वह जिनधर्म का मर्म नहीं जानता, पद्धति ही से वक्ता होता है, अध्यात्मरसमय सच्चे जिनधर्म का स्वरूप उसके द्वारा कैसे प्रगट किया जाये ? इसलिये आत्मज्ञानी हो तो सच्चा वक्तापना होता है, क्योंकि प्रवचनसार में ऐसा कहा है कि ह्न आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान, संयमभाव ह्न यह तीनों आत्मज्ञान से शून्य कार्यकारी नहीं है।
उक्त कथन में दो बातें विशेष ध्यान देने योग्य हैं ह्न पहली तो वह प्रश्नसह अर्थात् प्रश्नों को सहन करनेवाला होना चाहिये; क्योंकि श्रोता तो अपेक्षाकृत कम योग्यतावाले होते हैं; अतः वे कुछ भी प्रश्न कर सकते हैं, चुभनेवाला प्रश्न भी कर सकते हैं ह्र ऐसी स्थिति में वक्ता को उत्तेजित नहीं होना चाहिये ।
दूसरा है ह्र प्रागैव दृष्टोत्तरः अर्थात् वक्ता ऐसा होना चाहिये कि जिसने श्रोताओं द्वारा पूँछे जानेवाले प्रश्नों का उत्तर पहले से ही शास्त्रों में देखा हो। यदि ऐसा नहीं हुआ तो उसे बार-बार ऐसा कहना होगा कि देखकर बताऊँगा; जो उसकी प्रतिष्ठा को कम करेगा। एकाध बात में तो ऐसी बात चल सकती है; पर हर प्रश्न के उत्तर में यह कहना कि देखकर बताऊँगा, उसे हँसी का पात्र बना देगा।
वक्ता के लिये एक बात ऐसी भी कही है कि वक्ता सुन्दर होना चाहिये । आप कह सकते हैं कि वक्ता की सुन्दरता से श्रोताओं का क्या लेना-देना?
पर भाई साहब! बात यह है कि जिसप्रकार टी.वी. के समाचार सुनानेवाले और विमान परिचारिकायें सुन्दर हों तो लोगों को आकर्षित करते हैं; उसीप्रकार सुन्दर वक्ता भी श्रोताओं को आकर्षित करता है, प्रभावित करता है।
श्रोताओं की चर्चा करते हुये वे कहते हैं कि भली होनहार और जिनवाणी को आत्महित की भावना से अति प्रीतिपूर्वक सुननेवाले श्रोता
पहला प्रवचन
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धर्म के प्रति गाढ़ श्रद्धानी और विनयवान होना चाहिये। वैसे तो तीर्थंकरों की सभा में गणधरदेव भी श्रोता के रूप में ही उपस्थित रहते हैं।
वक्ता की बात चली तो पंडितजी ने तीर्थंकरों को सर्वश्रेष्ठ वक्ता बताया और जब श्रोताओं की बात चली तो गणधरदेव को सर्वश्रेष्ठ श्रोता बताया ।
यह तो आप जानते ही हैं कि जब तीर्थंकर भगवान महावीर की दिव्यध्वनि खिरी तो ४ ज्ञान के धारी गौतमगणधर की श्रोता के रूप में तीस वर्ष तक प्रतिदिन ७ घंटे और १२ मिनट अनवरत उपस्थिति रही ।
कहाँ हैं आज ऐसे श्रोता, जो निरन्तर समय पर उपस्थित रहते हों । अधिकार के अन्त में पण्डित टोडरमलजी उन श्रोताओं के प्रति, जो जिनवाणी श्रवण के सहज संयोग मिलने पर भी उपेक्षा करते हैं, रुचिपूर्वक जिनवाणी श्रवण नहीं करते, कहते हैं ह्र
" जिसप्रकार बड़े दरिद्री को अवलोकनमात्र चिन्तामणि की प्राप्ति हो और वह अवलोकन न करे, तथा जिसप्रकार कोढ़ी को अमृतपान कराये और वह न करे; उसीप्रकार संसार पीड़ित जीव को सुगम मोक्षमार्ग के उपदेश का निमित्त बने और वह अभ्यास न करे तो उसके अभाग्य की महिमा हमसे तो नहीं हो सकती। उसकी होनहार ही का विचार करने पर अपने को समता आती है। कहा है कि ह्न
साहीणो गुरुजोगे जेण सुतीह धम्मवयणाइ । ते धिट्ठदुट्ठचित्ता अह सुहडा भवभयविहूणा ।। स्वाधीन उपदेशदाता गुरु का योग मिलने पर भी जो जीव धर्मवचनों नहीं सुनते; वे धीठ हैं और उनका चित्त दुष्ट है। अथवा जिस संसारभय से तीर्थंकरादि डरे; वे उस संसारभय से रहित हैं, वे बड़े सुभट हैं।"
एक बात उन्होंने वक्ता और श्रोता ह्र दोनों के लिये समानरूप से कही है कि वक्ता और श्रोता ह्र दोनों को शास्त्र सुनने और सुनाने का काम लौकिक प्रयोजन की सिद्धि के लिये नहीं; अपितु विशुद्ध आत्मकल्याण और वीतरागी तत्त्वज्ञान के प्रचार-प्रसार की भावना से करना चाहिये ।