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मोक्षमार्गप्रकाशक का सार आज तो मूढ़ मुड़ाने की भी जरूरत नहीं है, लम्बे-लम्बे बाल रख लेने से भी काम चल जाता है।
उक्त संदर्भ में पण्डितजी कहते हैं कि अकेला अब्रह्म (कुशील) ही तो पाप नहीं है; हिंसा, झूठ, चोरी और परिग्रह भी तो पाप हैं; क्रोध, मान, माया, लोभ आदि कषायें भी तो पाप हैं और मिथ्यात्व तो पाप के बाप का भी बाप है। जो इन सब पापों को छोड़े बिना ही अपने को महान मानने लगे तो उसके लिए क्या कहा जाय ?
सामान्य गृहस्थों में तो थोड़ी-बहुत सहनशीलता देखी भी जाती है; क्योंकि उन्हें अपने परिवार के साथ तो समायोजन करना ही पड़ता है; पर ये तो....... । इनकी स्थिति तो यह है कि न सम्यग्दर्शन, न सम्यग्ज्ञान, न उन्हें प्राप्त करने की ललक; न तत्त्वज्ञान, न उसे प्राप्त करने के लिए अभ्यास ; न अध्ययन, न मनन, न चिन्तन, न खान-पान की मर्यादा; बस करे ब्रह्मचारी बन गये हैं और इसी के आधार पर स्वयं को गुरु मानकर पुजना चाहते हैं। यदि कोई उन्हें न पूजे, नमस्कारादि न करे तो फिर देखो इनका रंग, देखते ही बनता है।
पण्डितजी ने उस समय का जो चित्र खीचा है; आज की स्थिति तो उससे भी बदतर है।
सामान्यजनों के समान ही निरन्तर जगत प्रपंचों में उलझे रहना, कषायचक्र में जलते रहना, उबलते रहना, दंद-फंद करते रहना ह्र क्या यही काम रह गया इन ब्रह्मचारियों को, गृहत्यागियों को ? यह एक गंभीर प्रश्न है।
यहाँ एक प्रश्न संभव है कि पण्डित टोडरमलजी और आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी ह्न दोनों अविरत थे, सम्यग्दृष्टि थे; अविरत सम्यग्दृष्टि थे और आप स्वयं दोनों को गुरु मानते हैं, गुरुदेव कहते हैं। ह्र इसका क्या उत्तर है आपके पास ?
अरे, भाई ! बात उत्तर की नहीं है, वस्तुस्थिति यह है कि देवशास्त्र-गुरु में जिन्हें गुरु माना गया है, जिनकी हम अरहंतदेव के
दसवाँ प्रवचन समान ही प्रतिदिन पूजन करते हैं; इसप्रकार के गुरु न तो पण्डित टोडरमलजी थे और न आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी ही थे। न तो वे स्वयं को देव-शास्त्र-गुरुवाला गुरु मानते थे और न हम ही उन्हें देव-शास्त्र-गुरुवाला गुरु मानते हैं।
जिसप्रकार लोक में किसी भी विषय को पढ़ानेवाला कोई भी अध्यापक उनसे पढ़नेवाले छात्रों का गुरु कहलाता है; उसीप्रकार जैनदर्शन का मर्म बतानेवाले, पढ़ानेवाले; अध्यात्म का रहस्य समझानेवाले भी तो गुरु ही हैं। लौकिक विषय पढ़ानेवालों से तो वे असंख्यगुणे महान हैं, उपकारी हैं; इसी अपेक्षा हम उन्हें गुरुदेव कहते हैं। उनके उपकार को स्मरण करते हैं; उनकी पूजा नहीं करते।
कविवर रवीन्द्रनाथ टैगोर भी तो गुरुदेव ही कहे जाते थे। महाराष्ट्र में आज भी हर अध्यापक को गुरुजी कहकर बुलाते हैं। हम जब पढ़ते थे; तब अपने अध्यापक पण्डित नन्हेलालजी शास्त्री को गुरुजी ही कहते थे।
यहाँ जो प्रकरण चल रहा है, वह देव-शास्त्र-गुरुवाले गुरु का है। उसे इससे मिलाने की आवश्यकता नहीं है।
इसप्रकार का प्रश्न एक बार मैंने स्वयं स्वामीजी से किया था, जिसका उत्तर उन्होंने इसप्रकार दिया था ह्न
"प्रश्न ह्र आपको लोग गुरुदेव कहते हैं। क्या आप साधु हैं ? गुरु तो साधु को कहते हैं ?
उत्तर तू साध तो नग्न दिगम्बर छठवे-सातवे गणस्थान की भूमिका में झूलते भावलिंगी वीतरागी सन्त ही होते हैं। हम तो सामान्य श्रावक हैं, साधु नहीं। हम तो साधुओं के दासानुदास हैं। अहा ! वीतरागी सन्त कुन्दकुन्दाचार्य, अमृतचन्द्र आदि मुनिवरों के स्मरण मात्र से हमारा रोमांच हो जाता है।
प्रश्न ह तो फिर आपको लोग गुरुदेव क्यों कहते हैं ? उत्तर ह्न भाई ! गोपालदासजी बरैया को भी तो गुरु कहते थे। देव