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मोक्षमार्गप्रकाशक का सार रहती हैं। इसमें सबसे अधिक नुकसानदेह तो मिथ्यात्व का पुष्ट होना ही है; क्योंकि मिथ्यात्व अनंत संसार का कारण है।
जब बेटा व्यापार करने मुम्बई गया था, तब हमने उसे पूँजी के लिए पाँच लाख रुपये दिये थे। यदि वह पाँच वर्ष में पाँच के पच्चीस करके लावे, तब तो कहना ही क्या है; किन्तु यदि वह पाँच लाख लेकर आ जावे तो हम कहते हैं कि कोई बात नहीं, लाभ नहीं कमाया तो नुकसान भी तो नहीं किया, पूँजी तो सुरक्षित रखी और पाँच वर्ष का खर्च भी तो चलाया; पर हम यह भूल जाते हैं कि इस बीच उसने भरी जवानी पाँच वर्ष गमा दिये हैं, उसकी किसी को कोई कीमत ही नहीं है।
यदि रुपये गमाता है तो हम मानते कि कुछ गमाता है; पर जिस मनुष्य भव के एक समय का मूल्य अनंत चक्रवर्तियों की सम्पदा से भी अधिक मूल्यवान है; उस मनुष्य भव के अमूल्य पाँच वर्ष यों ही गमा दिये तो भी ऐसा नहीं लगता कि कुछ गमाया है।
देखो तो इस जीव की नादानी कि करोड़ों की एक-एक घड़ी चली जा रही है और यह विषय कषाय में उलझ कर रह गया है।
यह मनुष्य भव इतना मूल्यवान है कि यदि हम इसका उपयोग आत्मानुभव करने में करें, अपने ज्ञान-दर्शन उपयोग को क्षण भर के लिए अपने में लगा देवें तो सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति हो जावे और लगातार अन्तर्मुहूर्त तक आत्मा में ही लगाये रखें तो केवलज्ञान की प्राप्ति हो जाये। ह्न ऐसे इस मनुष्य भव के पाँच वर्ष यों ही गमा दिये।
पण्डितजी कहते हैं कि सबसे बड़ा बिगाड़ तो यही है कि जिस मनुष्य भव में आत्मकल्याण किया जा सकता था; उसे यों ही गृहीत मिथ्यात्व के सेवन और विषय कषायों के भोगने में लगा दिया। यह कोई समझदारी का काम नहीं है।
इसप्रकार यहाँ कुदेवों की चर्चा समाप्त होती है।
दसवाँ प्रवचन
मोक्षमार्गप्रकाशक का छठवाँ अधिकार चल रहा है। इस अधिकार में कुदेव, कुगुरु और कुधर्म की चर्चा की गयी है। अब तक अपन कुदेव के बारे में चर्चा कर चुके हैं और अब कुगुरुओं के संबंध में चर्चा करना है ।
यद्यपि उक्त चर्चा आज के जमाने में खतरे से खाली नहीं है; तथापि उससे बचना भी तो संभव नहीं है; क्योंकि कुदेव, कुगुरु और कुधर्म का स्वरूप समझे बिना गृहीत मिथ्यात्व नहीं छूटता और सच्चे देव, गुरु और धर्म का स्वरूप समझे बिना सम्यग्दर्शन की प्राप्ति नहीं होती ।
यदि हमें मुक्तिमहल की पहली सीढ़ी सम्यग्दर्शन पर कदम रखना है, सम्यग्दर्शन प्राप्त करना है तो हमें कुदेव, कुगुरु और कुधर्म तथा सच्चे देव, गुरु व धर्म का स्वरूप समझना ही होगा। यदि यह बात नहीं होती तो न तो पण्डितजी इनकी चर्चा करते और न हम ही इस प्रसंग में कुछ कहते; किन्तु इनका सही स्वरूप समझे बिना कल्याण का मार्ग खुलता नहीं है; अतः इनका प्रतिपादन अत्यन्त आवश्यक है ।
यद्यपि हम चर्चा आरंभ कर रहे हैं; तथापि किसी के चित्त में विक्षोभ पैदा न हो ह्न इस बात का ध्यान रखेंगे। यह बात भी सत्य है कि हम चाहे जितनी सावधानी रखें; तो भी जो वस्तुस्थिति है; उसे तो स्पष्ट करना ही होगा। उसके बिना तो उनका स्वरूप ही स्पष्ट नहीं होगा।
कुगुरु का स्वरूप स्पष्ट करते हुए पण्डित टोडरमलजी लिखते हैं कि जो जीव विषय-कषायादि अधर्मरूप परिणमित होते हैं, मानादिक कषायों के कारण स्वयं को धर्मात्मा मानते हैं, धर्मात्माओं के योग्य नमस्कारादि क्रियायें कराते हैं तथा किसी एक अंग को किंचित् धारण करके बड़ा धर्मात्मा कहलाते हैं, बड़े धर्मात्माओं के योग्य क्रियायें कराते हैं ह्र इसप्रकार धर्म के आधार पर अपने को बड़ा मनवाते हैं; उन सभी को कुगुरु जानना चाहिए; क्योंकि धर्मपद्धति में तो मिथ्यात्व और विषय - कषायादि के