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मोक्षमार्गप्रकाशक का सार
अरे, भाई ! पहलवान की तो व्यायाम भी नहीं हो पाती; क्योंकि वह तो प्रतिदिन अपने बराबरी के पहलवान से अभ्यास करता है, उसके प्रबल प्रहार करनेवाले मुक्के खाता है। बालक के आक्रमण से उसका कुछ भी बिगड़नेवाला नहीं था, वह तो अपने आप में सुरक्षित ही था । उसे बचाने वाले दस वर्ष के बालक के सहयोग की रंचमात्र भी आवश्यकता नहीं थी । इसीप्रकार क्या कमठ के उपसर्ग से पार्श्वनाथ क्षत-विक्षत हो जाते, उन्हें कोई बहुत बड़ी हानि उठानी पड़ती ?
नहीं, नहीं; ऐसा कुछ भी नहीं होता। अतुल्य बल और वज्रवृषभनाराचसंहननवाले पार्श्वनाथ मुनिराज को तो कुछ नहीं होता; पर कमठ को तीव्रतम पापबंध अवश्य होता, हुआ भी होगा और उसका फल उसे आगे चलकर भोगना ही होगा ।
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कमठ के आक्रमण से पार्श्वनाथ मुनिराज का कुछ भी बिगड़नेवाला नहीं था, वे तो अपने आप में सुरक्षित ही थे। उन्हें धरणेन्द्र - पद्मावती के सहयोग की भी रंचमात्र आवश्यकता नहीं थी ।
ऐसा भी हो सकता है कि वह अबोध बालक, उसी पहलवान का पुत्र हो और किसी बात पर बिगड़ कर उत्तेजना में उसने अपने पहलवान पिता पर हाथ उठा दिया हो और उसके ही बड़े भाई ने उसके अविनयपूर्ण व्यवहार से उसे रोक दिया हो; पर यह पहलवान पिता को तो एक कौतूहल ही है।
वह दस वर्ष का बालक यह अच्छी तरह जानता होगा कि आठ वर्ष के बालक के आक्रमण से उसके पहलवान पिता का कुछ भी बिगड़नेवाला नहीं है, अपितु बालक को चोट अवश्य लग सकती है; अतः हम यह भी कह सकते हैं कि उसने अपने पिता को नहीं बचाया था, अपितु अपने छोटे भाई को पिता की अविनय करनेरूप दुष्कर्म से बचाया था, उसे स्वयं को लगनेवाली चोट से बचाया था; इसप्रकार उसने पिता का नहीं, भाई का उपकार किया था।
नौवाँ प्रवचन
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वह पहलवान पिता न तो मारनेवाले बालक से नाराज ही होता और न बचानेवाले बालक से प्रसन्न; उसका दोनों के प्रति समभाव ही रहता है, वह तो दोनों को पुचकारता ही है, समझाता ही है।
इसीप्रकार अन्तरोन्मुखी मुनिराज पार्श्वनाथ पर हुए उपसर्ग की घटना भी एक कौतूहल से अधिक कुछ नहीं है। वे पार्श्वनाथ मुनिराज न तो कमठ से नाराज हुए और न धरणेन्द्र - पद्मावती से प्रसन्न । दोनों के प्रति समानभाव ही उनका समताभाव था, जिसके बल पर वे आगे बढते गये और अतीन्द्रियानन्द प्राप्त कर पूर्ण वीतरागी - सर्वज्ञ बन गये ।
मुनिराज पार्श्वनाथ पर कोई बड़ा संकट नहीं था ह्न यह बात धरणेन्द्रपद्मावती भी अच्छी तरह जानते होंगे; क्योंकि आखिर वे मुनिराज पार्श्वनाथ के भक्त थे । इसलिए हम कह सकते हैं कि उन्होंने मुनिराज पार्श्वनाथ की रक्षा नहीं की थी, अपितु उस कमठ के जीव को ही महान पाप करने से विरत किया था । वस्तुत: बात यह है कि उन्होंने उपकार मुनिराज पार्श्वनाथ का नहीं, कमठ के जीव का किया है। उन्हें कमठ पर करुणा आई और उन्होंने उसे नरक, निगोद ले जानेवाले महान पाप से बचा लिया।
सोचने का यह भी एक दृष्टिकोण हो सकता है। जो भी हो, पर यह सुनिश्चित है कि छठवें गुणस्थान के नीचे के जीवों की अष्टद्रव्य से पूजन करने को यहाँ गृहीत मिथ्यात्व कहा गया है और तत्संबंधी मान्यता को कुदेव संबंधी मान्यता माना गया है।
वस्तुतः स्थिति तो यह है कि आप किसी को भी अपने सुख-दुःख और जीवन-मरण का कर्ता-धर्ता मानकर पूजोगे तो वह कुदेव संबंधी गृहीत मिथ्यात्व होगा; क्योंकि प्रत्येक जीव के सुख-दुःख, जीवन-मरण आदि स्वयं की तत्समय की योग्यता और स्वयं के पुण्य-पाप के उदयानुसार होते हैं। यदि हमारे पाप का उदय है और हमारा बुरा होना है तो दुनियाँ की कोई भी शक्ति बचा नहीं सकती। इसीप्रकार हमारी होनहार अच्छी है और तदनुसार पुण्य का उदय भी है तो दुनिया की कोई भी शक्ति हमारा बुरा नहीं कर सकती।