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मोक्षमार्गप्रकाशक का सार कि स्थान-स्थान पर पद्मावती की मूर्तियाँ विराजमान होकर अष्ट द्रव्य से पूजी जाने लगी हैं।
हम यह नहीं कहना चाहते हैं कि हम उनका निरादर करें; क्योंकि निरादर तो किसी का भी नहीं करना चाहिए, शत्रु का भी नहीं; फिर वे तो भगवान पार्श्वनाथ के भक्त होने से हमारे साधर्मी भाई-बहिन हैं। अतः उनके साथ उनकी भूमिकानुसार साधर्मी वात्सल्य तो होना ही चाहिए ।
दिगम्बर जैन समाज में एक बहुत बड़ा वर्ग ऐसा है; जो उनकी पूजाभक्ति करता है। अतः उनके साथ किया गया असद्व्यवहार विग्रह का कारण बन सकता है; जो सामाजिक शान्ति की दृष्टि से भी ठीक नहीं है। अच्छा तो यही है कि जहाँ जो परम्परा चल रही है, उसमें कोई छेड़छाड़ न की जावे ।
यद्यपि यह सबकुछ ठीक है, पर प्रत्येक व्यक्ति का वस्तु के सत्यस्वरूप का निर्णय करना न केवल जन्मसिद्ध अधिकार है; अपितु आत्मकल्याण और परमसत्य की प्राप्ति के लिए अत्यन्त आवश्यक भी है।
यदि कोई हमारे किसी पूज्य पुरुष की, माता-पिता की, भाई-बहिन की किसी आततायी से रक्षा करने का प्रयास करता है तो हम उसके साथ बहुत अच्छा व्यवहार करते हैं और करना भी चाहिए; परन्तु पंचपरमेष्ठियों
समान उसकी पूजा तो नहीं करने लगते। ठीक इसीप्रकार धरणेन्द्रपद्मावती के साथ वात्सल्यभाव का व्यवहार तो उचित माना जा सकता है; किन्तु उनकी पूजा-अर्चना को तो किसी भी रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता है; क्योंकि अष्टद्रव्य से तो एकमात्र सम्यग्दर्शनज्ञान चारित्र के धारी सकल संयमी पंचपरमेष्ठी ही पूज्य हैं।
उपसर्ग दूर करने में तो धरणेन्द्र - पद्मावती ह्र दोनों ही साथ थे। ऐसे कार्यों में तो पति की ही प्रधानता रहती है, पत्नी तो उसका साथ देती है। इस परम्परा के अनुसार इस उपसर्ग के दूर करने के प्रयास में भी धरणेन्द्र को ही मुख्य होना चाहिए; किन्तु मूर्तियाँ धरणेन्द्र की नहीं, पद्मावती की
नौवाँ प्रवचन
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ही देखने में आती हैं; पूजा पाठ भी उनका ही विशेष होता है। एकाध स्थान पर धरणेन्द्र की मूर्ति हो सकती है; पर पद्मावती तो.... ।
उक्त मनोवृत्ति का कारण कुछ समझ में नहीं आता। सभी तीर्थंकर पुरुष होने से पुरुषों की मूर्तियाँ तो सर्वत्र हैं ही; पर महिलाओं की मूर्तियाँ देखने में नहीं आतीं। हो सकता है कि महिलाओं को प्रतिनिधित्व देने की भावना से यह सबकुछ हुआ हो; पर सोचने की बात यह है कि देवगति की महिला को क्यों चुना गया, वह भी भवनवासी ?
यह तो आप जानते ही हैं कि सम्यग्दृष्टि जीव मर कर न तो महिला की पर्याय में जाते हैं और न भवनवासी, व्यंतर और ज्योतिषी देवों में पैदा होते हैं। ऐसी स्थिति में उनका जन्म से सम्यग्दृष्टि होना संभव नहीं है।
हो सकता है, उन्हें जन्म के बाद सम्यग्दर्शन हो गया हो; पर संयम होने का तो प्रश्न ही खड़ा नहीं होता; क्योंकि देवगति में तो संयम होता ही नहीं है। यदि सम्यग्दर्शन से ही पूजना है तो फिर जिनके सम्यग्दर्शन की गारंटी है, जो एक भवावतारी हैं; ऐसे लाखों अहमिन्द्र, इन्द्र और लौकान्तिक आदि देव हैं; उन्हें छोड़कर एक भवनवासी देवी को पूजना सहजभाव से गले नहीं उतरता ।
तीर्थंकर जन्म से ही अतुल्यबल के धारी होते हैं, वज्रवृषभनाराच संहनन के धारी होते हैं। तात्पर्य यह है कि उनका शरीर इतना मजबूत होता है कि वज्र का प्रहार भी उनका कुछ बिगाड़ नहीं कर सकता । तीर्थंकर नेमिनाथ के पैर को नारायण भी नहीं हिला सके थे। अरे, भाई ! उनकी कोई उंगली भी नहीं मोड़ सकता। साधारण से देव के उपसर्ग से तीर्थंकर पार्श्वनाथ का क्या होनेवाला था, वे तो अपने में पूर्ण सुरक्षित थे।
यदि वे पैर की उंगली भी दबा देते तो कमठ का मद चूर हो जाता। पर वे तो अपने में मगन थे, आत्मध्यान में लवलीन थे, क्षपक श्रेणी में आरोहण कर रहे थे। यदि ऐसा नहीं होता तो उन्हें अन्तर्मुहूर्त में ही केवलज्ञान कैसे हो जाता ?