________________
१३०
मोक्षमार्गप्रकाशक का सार कम झूठ नहीं बोलते । यह तो आप जानते ही हैं कि जब तक किसी बात की सच्चाई का भरोसा न हो, उससे लाभ लेना संभव नहीं है।
सदा सत्य बोलने वाले तो महान होते ही हैं; उनसे तो लाभ मिलता ही है, किन्तु जो लोग सदा ही गारंटी से झूठ बोलते हैं; कदाचित् उनसे भी लाभ उठाया जा सकता है; क्योंकि सुनिश्चितता होने से हम किसी निर्णय पर पहुँच सकते हैं; किन्तु जो कभी झूठ और कभी सत्य बोलता है, उससे लाभ प्राप्त करना संभव नहीं है। व्यंतरों की यही अप्रमाणिकता ह हमें उनसे सदा दूर ही रहना चाहिए ह्र इसके लिए प्रेरित करती है।
प्रश्न सदा झूठ बोलनेवालों से लाभ उठाने की बात स्पष्ट नहीं हुई। कृपया उदाहरण देकर स्पष्ट करें ? ____ उत्तर ह्र जब हम किसी व्यक्ति से बाजारभाव के संदर्भ में मंदी-तेजी के बारे में पूछते हैं; तब यदि वह हमें सदा सत्य ही बताता है, सही सलाह देता है, ऐसी स्थिति में उससे तो लाभ उठाया ही जा सकता है; परन्तु जब कोई व्यक्ति सदा उल्टा ही बताता है; मंदी हो तो तेजी बताता है, तेजी हो तो मंदी बताता है; तब भी हम उससे लाभ उठा सकते हैं; क्योंकि हम जानते हैं कि इसने मंदी की बात की है तो बाजार में अवश्य तेजी होगी; इसीप्रकार तेजी की बात है तो मंदी ही होगी। इसप्रकार हमें बाजार की सही स्थिति का ज्ञान हो जाता है और हम उसके आधार पर सही निर्णय ले सकते हैं; किन्तु जो व्यक्ति कभी सत्य, कभी झूठ बोलता है; उसके वचनों के आधार पर तो कोई भी निर्णय लेना खतरे से खाली नहीं है।
व्यन्तरदेवों की यही ह कभी सत्य और कभी झूठ बोलने की आदत हमें किसी भी निष्कर्ष पर पहुँचने में सहायक नहीं है, उपयोगी नहीं है।
अत: व्यन्तरदेवों की पूजा-भक्ति से न तो लौकिक लाभ है और न पारलौकिक; अपितु गृहीत मिथ्यात्व होने से हानि ही हानि है; अत: उनकी पूजा-भक्ति करना किसी भी दृष्टि से ठीक नहीं है।
नौवाँ प्रवचन मोक्षमार्गप्रकाशक का छठवाँ अधिकार चल रहा है; जिसमें कुदेव, कुगुरु और कुधर्म के संदर्भ में विशेष निरूपण है। उक्त संदर्भ में व्यन्तरादि देवों की चर्चा चल रही है। उनकी प्रवृत्ति का उल्लेख करते हुए पण्डितजी कहते हैं कि कल्पित देवों के जो चमत्कारादि देखे जाते हैं; वे सभी व्यन्तरादि देवों द्वारा ही किये जाते हैं। पूर्व पर्याय में कोई व्यक्ति उनका सेवक था। वह मरकर व्यंतर हो गया, तब वह उनको मानने की प्रवृत्ति चलाने के लिए कुछ चमत्कार दिखाता है तो यह भोला जगत प्रभावित हो जाता है।
जिनप्रतिमादि के भी जो अतिशय देखने-सुनने में आते हैं; वे सभी भी जिनकृत नहीं हैं; उनमें श्रद्धा रखनेवाले व्यन्तरों के ही कार्य हैं।
व्यन्तरों की वृत्ति और प्रवृत्ति बालकों के समान कुतूहूलप्रिय होती है। जिसप्रकार बालक कुतूहलवश कभी अपने को हीन दिखाता है, कभी महान दिखाता है, कभी चिढ़ाता है, कभी गाली सुनाता है, कभी ऊँचे स्वर से रोता है और रोते-रोते हँसने लग जाता है। उसीप्रकार की अनर्गल चेष्टायें व्यंतर भी करते हैं।
ये व्यन्तर अन्य जीवों के शरीरादि को उनके पुण्य-पापानुसार परिणमा सकते हैं। वस्तुतः उनके परिणमन में ये तो मात्र बाह्य निमित्त हैं, अंतरंग निमित्त तो उनके स्वयं के पुण्य-पाप का उदय है। कार्य तो उपादानगत योग्यता के अनुसार ही होता है।
यह सुनकर कोई कह सकता है कि यदि यह बात है तो उनके पूजने में क्या दोष है ?
उससे कहते हैं कि निमित्त तो अपनी बीमारी को दूर करने में वैद्यडॉक्टर भी हैं, लौकिक अनुकूलता जुटाने में माँ-बाप भी होते हैं, शिक्षा ग्रहण करने में शिक्षक भी होते हैं और सेवा करने में नौकर-चाकर भी होते हैं; इसकारण हम उनका उचित आदर-सत्कार भी करते हैं; पर उन्हें