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मोक्षमार्गप्रकाशक का सार को देखकर विकारभाव होता है; उसीप्रकार जिनप्रतिमा को देखकर भक्तिभाव क्यों नहीं होगा? |
इसप्रकार पण्डितजी अनेक आगम प्रमाण और युक्तियों के आधार से मूर्ति और मंदिरों की स्थापना करते हैं। । यद्यपि पण्डितजी ने मोक्षमार्गप्रकाशक में मंदिरमार्गी मूर्तिपूजक और स्थानकवासी श्वेताम्बरों की चर्चा बहुत विस्तार से की है; तथापि हमें यहाँ उक्त संदर्भ में विशेष चर्चा करना अभीष्ट नहीं है। जिन भाई-बहिनों को उक्त संदर्भ में विशेष जानना हो; वे मोक्षमार्गप्रकाशक के उक्त प्रकरणों का निष्पक्षभाव से गंभीर अध्ययन करें।
इसप्रकार हम देखते हैं कि इस पाँचवें अधिकार में अन्य मतों की समीक्षा के साथ-साथ मूर्तिपूजक मंदिरमार्गी श्वेताम्बर मत और स्थानकवासी श्वेताम्बर मतवालों की भी समीक्षा की गई है।
इसके बाद छठवाँ अधिकार आरंभ होता है। इस अधिकार में गृहीत मिथ्यात्व के ही अन्तर्गत कुदेव, कुगुरु और कुधर्म का स्वरूप बताकर उनकी उपासना का निषेध किया गया है। इसके ही अंतर्गत गणगौर, शीतला, भूत-प्रेतादि व्यंतर, सूर्य-चन्द्र-शनिश्चरादि ग्रह, पीर-पैगम्बर, गाय आदि पशु, अग्नि, जलादि के पूज्यत्व पर भी विचार किया गया है।
इसके अतिरिक्त क्षेत्रपाल, पद्मावती आदि एवं यक्ष-यक्षिका की पूजा-उपासना आदि के संदर्भ में सयुक्ति विवेचन प्रस्तुत किया गया है
और इनको पूजने का निराकरण किया गया है। ___पाँचवें अधिकार में जैनेतर एवं श्वेताम्बर मत की समीक्षा के उपरान्त अब इस छठवें अधिकार में दिगम्बर धर्म के अनुयायियों में प्राप्त होनेवाली गृहीत मिथ्यात्व संबंधी विकृतियों की चर्चा आरंभ करते हैं। ___ कुदेव, कुगुरु और कुधर्म के संदर्भ में सर्वप्रथम यह समझ लेना अत्यन्त आवश्यक है कि अदेव को देव, अगुरु को गुरु और अधर्म को धर्म मान लेना ही कुदेव, कुगुरु और कुधर्म की उपासना है। तात्पर्य यह है कि जैनदर्शन में वीतरागी-सर्वज्ञ अरहंत और सिद्ध परमेष्ठी सच्चे देव हैं, वीतरागता के मार्ग पर चलनेवाले छटवें-सातवें गुणस्थान और उसके
आठवाँ प्रवचन
१२३ आगे बारहवें गुणस्थान तक के संत ही देव-गुरु-धर्मवाले गुरु हैं तथा वीतरागतारूप और वीतरागता की पोषक परिणति ही धर्म है।
कहीं-कहीं अरहंत भगवान को भी परमगुरु कहा गया है। अत: हम यह भी कह सकते हैं कि पंच परमेष्ठियों में सिद्ध भगवान देव हैं और शेष चार परमेष्ठी ह अरहंत, आचार्य, उपाध्याय और साधु गुरु हैं।
यह तो आप जानते ही हैं कि लोक में विद्यागुरु को भी गुरु कहा जाता है; माता-पिता, बड़े भाई आदि पारिवारिक पूज्यपुरुषों को भी गुरु शब्द से अभिहित किया जाता है। अतः यह ध्यान रखना अत्यन्त आवश्यक है कि यहाँ जिन गुरुओं की बात चल रही है; वे गुरु देवशास्त्र-गुरुवाले गुरु ही हैं; अन्य अध्यापकादि और घर के पूज्यपुरुष नहीं ।
जैनदर्शन अकर्तावादी दर्शन है। उसके अनुसार कोई भी द्रव्य अन्य द्रव्य की परिणति का कर्ता-धर्ता नहीं है। निश्चय अर्थात् परमसत्य बात तो यही है; यदि कहीं किसी द्रव्य को किसी अन्य द्रव्य का कर्ता-धर्ता कहा गया हो तो उसे प्रयोजनवश निमित्तादि की अपेक्षा व्यवहारनय से किया गया उपचरित कथन ही समझना चाहिए।
जैनदर्शन में सच्चे देव को वीतरागी और सर्वज्ञ होने के साथ-साथ हितोपदेशी अर्थात् हित का उपदेश देनेवाला तो कहा गया है; किन्तु पर के हित-अहित का कर्ता-धर्ता नहीं माना गया।
अत: यदि कहीं इसप्रकार का व्यवहार कथन प्राप्त हो जाय कि भगवान ने उसका भला किया तो उसका अर्थ यही समझना चाहिए कि भगवान की दिव्यध्वनि में समागत तत्त्वज्ञान को समझ कर उस व्यक्ति ने स्वयं ही स्वयं का भला किया है, भगवान ने उसमें कुछ नहीं किया है।
उक्त तथ्य पर पण्डितजी ने आगे चलकर सातवें अधिकार में अनेक तर्क और युक्तियों के माध्यम से पर्याप्त प्रकाश डाला है। __यदि कोई व्यक्ति अरहंतादिक को भी पर का कर्ता-धर्ता मानकर पूजे तो उसकी वह मान्यता कुदेव संबंधी मान्यता होगी।