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मोक्षमार्गप्रकाशक का सार "कुदेव-कुगुरु-कुधर्म और कल्पित तत्त्वों का श्रद्धान तो मिथ्यादर्शन है। तथा जिनमें विपरीत निरूपण द्वारा रागादि का पोषण किया गया हो ह्र ऐसे कुशास्त्रों का श्रद्धानपूर्वक अभ्यास सो मिथ्याज्ञान है। तथा जिस आचरण में कषायों का सेवन हो और उसे धर्मरूप अंगीकार करे सो मिथ्याचारित्र है।"
मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र की परिभाषा में कुदेव, कुगुरु और कुधर्म तथा कल्पित तत्त्वों के श्रद्धान को मिथ्यादर्शन; रागादि पोषक शास्त्रों के श्रद्धापूर्वक अभ्यास को मिथ्याज्ञान और धर्म मानकर कषायों के सेवनरूप आचरण को मिथ्याचारित्र कहा है; क्योंकि यह प्रकरण गृहीत मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र का है।
यह तो आपको ध्यान में है ही कि अगृहीत मिथ्यादर्शन, अगृहीत मिथ्याज्ञान और अगृहीत मिथ्याचारित्र के निरूपण के समय देहादि संयोगों में एकत्व, ममत्व, कर्तृत्व और भोक्तृत्वबुद्धि को मिथ्यादर्शन, देहादि संयोगों को निजरूप जानने, उनका स्वामी और कर्ता-भोक्ता जानने का नाम मिथ्याज्ञान और इन मिथ्यादर्शन व मिथ्याज्ञानपूर्वक विषय-कषाय में प्रवृत्ति को मिथ्याचारित्र कहा था।
मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र की उक्त परिभाषाओं में जो अन्तर दिखाई देता है, वह अगृहीत और गृहीत के भेद के कारण है। अगृहीत में अंतरंग की मुख्यता है और गृहीत में बाह्य की। ___ आचार्य उमास्वामी तत्त्वार्थसूत्र में तत्त्वार्थश्रद्धान को और आचार्य समन्तभद्र रत्नकरण्ड श्रावकाचार में सच्चे देव-शास्त्र-गुरु की श्रद्धा को सम्यग्दर्शन और इन्हीं के सम्यक् परिज्ञान को सम्यग्ज्ञान कहते हैं तथा सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञानसहित पाँच पापों के एकदेश त्याग को देशसंयम और सम्पूर्णत: त्याग को सकल संयम अर्थात् चारित्र कहते हैं।
उन्हीं सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र के विरुद्ध यहाँ गृहीत मिथ्यादर्शन के १. मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ-९६
सातवाँ प्रवचन प्रकरण में कुदेव, कुगुरु और कुधर्म तथा कल्पित तत्त्वार्थों के श्रद्धान को मिथ्यादर्शन, धर्म के नाम पर श्रद्धापूर्वक रागादि पोषक शास्त्रों के अभ्यास को मिथ्याज्ञान और विषय-कषायों के सेवन सहित आचरण को धर्मरूप से अंगीकार करने को मिथ्याचारित्र कहा है।
अगृहीत मिथ्यादर्शन-मिथ्याज्ञान-मिथ्याचारित्र को अंतरंग वृत्ति और प्रवृत्तिरूप से प्रस्तुत किया है और गृहीत मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्र को निमित्तादि की अपेक्षा बाह्य व्यवहाररूप में समझाया जा रहा है।
जरा विचार तो करो, अनादिकाल से निगोद में तो यह जीव देहादि में एकत्व, ममत्व, कर्तृत्व और भोक्तृत्वबुद्धिरूप मिथ्यात्व से ग्रसित रहा; भाग्य से वहाँ से निकला और द्वीन्द्रियादि अवस्थाओं को पार करता हुआ महाभाग्य से इस सैनी पंचेन्द्रिय मनुष्य पर्याय में आया तो यहाँ कुगुरु, कुदेव और कुशास्त्रों के चक्कर में पड़ गया।
अन्तर में तो परपदार्थों को अपना मानने, उनका स्वामी और कर्ताभोक्ता बनने का संस्कार था ही; ऊपर से कुदेव और कुगुरुओं से भी यही सुनने को मिला, कुशास्त्रों में भी यही पढ़ने को मिला कि देहादि संयोगों को संभालो। इसप्रकार अनादिकालीन मिथ्या मान्यता और अधिक पुष्ट हो गई तथा सन्मार्ग मिलना और अधिक दुर्लभ हो गया।
इस लोक में अनादिकालीन अगृहीत मिथ्यात्व की सुरक्षा और पोषण की कितनी बड़ी व्यवस्था है; उसका विवेचन पण्डितजी पाँचवें, छठवें और सातवें अधिकार में विस्तार से कर रहे हैं। उसकी सुरक्षा के लिए पर कर्तृत्व के पोषक लोग प्रत्येक नगर की गली-गली में बैठे हैं, घर-घर में जम रहे हैं और निरन्तर परकर्तृत्व की मान्यता को पुष्ट कर रहे हैं।
यह हमारा महाभाग्य है कि कहीं-कहीं इक्के-दुक्के महापण्डित टोडरमलजी जैसे ज्ञानी धर्मात्मा इसके विरुद्ध आवाज लगाते रहे हैं, डंका बजा-बजा कर जगाते रहे हैं; कहते रहे हैं कि हे भव्यजीवो ! इस अनादिकालीन महा मिथ्यात्व को अब तो छोड़ो।