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मोक्षमार्गप्रकाशक का सार यदि कोई समझाता भी है तो वह हमारी देह में एकत्वबुद्धिरूप अनादिकालीन मिथ्या मान्यता को मात्र पुष्ट करता है, पैदा नहीं करता।
उसके कहने पर यदि हम अपनी देह में एकत्वबुद्धिरूप पुरानी मान्यता को दृढ़ करते हैं तो फिर अगृहीत मिथ्यादृष्टि के साथ-साथ गृहीत मिथ्यादृष्टि भी हो जाते हैं। ___ प्रश्न ह्र आप कहते हैं कि अगृहीत मिथ्यात्व में कोई निमित्त नहीं होता; वह तो अपनी उपादानगत योग्यता से स्वयं होता है और अनादिकाल से है। क्या यह ठीक है ? तथा उत्पन्नध्वंसी पर्याय अनादि कैसे हो सकती है?
उत्तर त यह हमने कब कहा कि अगृहीत मिथ्यादर्शन में कोई निमित्त नहीं होता। हम तो यह कहते हैं कि इसमें कुदेवादि बाह्य निमित्त नहीं होते। अगृहीत मिथ्यात्व में भी मिथ्यात्व कर्म का उदयरूप अंतरंग निमित्त तो है ही।
इसीप्रकार अगृहीत मिथ्यात्व भी प्रतिसमय नया-नया ही उत्पन्न होता है; पर संतति की अपेक्षा अनादि है और अभव्यों की अपेक्षा अनंतकाल तक रहेगा; क्योंकि जिनवाणी में एक अनादिनित्यपर्यायार्थिकनय भी तो है; जिसकी अपेक्षा पर्याय अनादिनिधन भी होती है।
उक्त सम्पूर्ण चर्चा अगृहीत मिथ्यादृष्टि की, जीव-अजीव तत्त्वों के संबंध में हुई भूलों की हो रही है। यद्यपि जीव और पुद्गल ह्न दोनों द्रव्य अत्यन्त भिन्न हैं; तथापि एकक्षेत्रावगाह संबंध देखकर अगृहीत मिथ्यादृष्टि दोनों को एक ही मान लेता है और उनके मिले हुए रूप में अपना अपनापन और स्वामित्व स्थापित कर लेता है। यही उसकी जीवतत्त्व और अजीवतत्त्व के संबंध में भूल है।
अब आस्रवतत्त्व सबंधी भूल की चर्चा करते हैं। मोह-राग-द्वेषरूप भाव ही मुख्यरूप से आसवभाव हैं। यद्यपि ये आसवभाव आत्मा को अनन्त दुःख देनेवाले हैं; तथापि यह उनमें भी शुभ-अशुभ का भेद करके शुभासव को सुखदायी मानने लगता है।
पाँचवाँ प्रवचन
छहढाला में साफ-साफ लिखा है कि ह्र
रागादि प्रगट ये दुःख देन, तिनही को सेवत गिनत चैन । ये रागादिभावरूप आस्रवभाव दु:ख देनेवाले हैं ह्र यद्यपि यह बात अत्यन्त प्रगट है, स्पष्ट है; तथापि यह अगृहीत मिथ्यादृष्टि जीव उन रागादि भावों का सेवन करते हुए आनन्द का अनुभव करता है। आस्रव भावों में इसकी यह सुखबुद्धि अनादि से ही है। इसलिए यह अगृहीत मिथ्यादर्शन है।
आस्रवभाव सबंधी विपरीत मान्यता का स्वरूप स्पष्ट करते हुए पण्डितजी लिखते हैं कि ह्र ___ "तथा इस जीव को मोह के उदय से मिथ्यात्व-कषायादिकभाव होते हैं, उनको अपना स्वभाव मानता है, कर्मोपाधि से हुए नहीं जानता। दर्शन-ज्ञान उपयोग और ये आस्रवभाव ह्न इनको एक मानता है; क्योंकि इनका आधारभूत तो एक आत्मा है और इनका परिणमन एक ही काल में होता है; इसलिए इसे भिन्नपना भासित नहीं होता और भिन्नपना भासित होने का कारण जो विचार है, सो मिथ्यादर्शन के बल से हो नहीं सकता।
तथा ये मिथ्यात्व-कषायभाव आकुलता सहित हैं; इसलिए वर्तमान दुःखमय हैं और कर्मबंध के कारण हैं; इसलिए आगामी काल में दुःख उत्पन्न करेंगे हह्न ऐसा उन्हें नहीं मानता और भला जान इन भावोंरूप होकर स्वयं प्रवर्तता है।
तथा वह दुःखी तो अपने इन मिथ्यात्व एवं कषायभावों से होता है और वृथा ही औरों को दुःख उत्पन्न करनेवाला मानता है। जैसे हू दुखी तो मिथ्याश्रद्धान से होता है, परन्तु अपने श्रद्धान के अनुसार जो पदार्थ न प्रवर्ते, उसे दुःखदायक मानता है।
तथा दुःखी तो क्रोध से होता है, परन्तु जिससे क्रोध किया हो, उसको दु:खदायक मानता है। दु:खी तो लोभ से होता है, परन्तु इष्ट वस्तु की अप्राप्ति को दुःखदायक मानता है ह इसीप्रकार अन्यत्र जानना ।" १. मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ-८२