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मोक्षमार्गप्रकाशक का सार
गाय उसे प्रेम से नहीं अपनाती। उसे अपनी माँ की तलाश है, पर करे क्या ? क्योंकि उसने अभी तक अपनी माँ की शक्ल नहीं देखी है, जाने तो जाने कैसे ?
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वह असमंजस में ही था कि उनमें से एक गाय उसे चाँटने लगी तो वह समझ गया कि यही उसकी माँ है और वह उसमें अपना भोजन तलाशने लगा। उसे इतना तो पता था कि यहीं-कहीं माँ के पैरों के बीच ही उसका भोजन है; अत: वह आगे के पैरों के बीच मुँह मारने लगा । आखिर किसी के सहयोग के बिना ही वह सही जगह पर पहुँच गया और दूध पीने लगा।
'जो चाँटे, वही माँ है' ह्र इस सिद्धान्त के आधार पर उसने अपनी माँ को तलाश लिया। इसीप्रकार जो पौद्गलिक शरीर इस जीव के ज्ञान में आया; इसने सहज ही उसमें अपनापन स्थापित कर लिया। यही उसकी जीव- अजीव तत्त्व संबंधी भूल है और यही इसका अगृहीत मिथ्यादर्शन है।
इसप्रकार हम देखते हैं कि यह अगृहीत मिथ्यादृष्टि जीव अनादिकाल से ही देह में अपनापन धारण किये है, उसी में रचा-पचा है, उसी की संभाल में व्यस्त है, उसके लिए सबकुछ करने को तैयार रहता है, भक्ष्यअभक्ष्य का विचार किये बिना चाहे जो कुछ खाने लगता है।
एक तो इसकी ऐसी वृत्ति और प्रवृत्ति सहज ही है और फिर ऐसी शिक्षा देनेवाले लोग भी सहज मिल जाते हैं कि जो कहते हैं कि 'काया राखे धरम है', 'शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम् ह्न शरीर ही एकमात्र धर्म का साधन है' इसलिए इसे संभाल कर रखें।
लोगों की ऐसी बातें सुनकर इसकी अनादिकालीन मिथ्या मान्यता पुष्ट हो जाती है; इसकारण यह गृहीत मिथ्यादृष्टि भी बन जाता है।
सात तत्त्वों को समझने में जिन भूलों की संभावना है; वह एकेन्द्रियादि में कैसे संभव हैं; क्योंकि वे तो सात तत्त्वों के नाम भी नहीं जानते; जान भी नहीं सकते। यह एक ऐसी आशंका है कि जिसका निराकरण महापण्डित
पाँचवाँ प्रवचन
टोडरमलजी जैसे प्रतिभाशाली विद्वान ही कर सकते थे और उन्होंने स्वयं शंका उपस्थित कर इसका सोदाहरण समाधान प्रस्तुत किया।
"ज्ञान का विकास हो जाने के बाद भी इसका उक्त अज्ञान समाप्त क्यों नहीं होता' ह्न इस संदर्भ में भी उन्होंने चिन्तन किया था; जिसे वे इसप्रकार प्रस्तुत करते हैं ह्र
" तथा अपने को और शरीर को निमित्तनैमित्तिक संबंध बहुत हैं, इसलिए भिन्नता भासित नहीं होती। और जिस विचार द्वारा भिन्नता भासित होती है, वह मिथ्यादर्शन के जोर से हो नहीं सकता; इसलिए पर्याय में ही अहंबुद्धि पायी जाती है।"
हम निरन्तर स्वाध्याय करते हैं, प्रवचन सुनते हैं; हमारे क्षयोपशम ज्ञान में भी यह बात आ जाती है कि आत्मा इन शरीरादि तथा स्त्रीपुत्रादि संयोगों से भिन्न है, इन संयोगी पदार्थों पर इस आत्मा का रंचमात्र भी अधिकार नहीं है, इनमें कुछ भी फेरफार करना संभव नहीं है, इनका उपभोग करना भी संभव नहीं है; क्योंकि इनके और आत्मा के बीच में अत्यन्ताभाव की वज्र की दीवाल है। तत्त्वचर्चा में भी हम ऐसी ही चर्चा करते हैं; प्रवचन के माध्यम से दूसरों को समझाते भी हैं; तथापि प्रवचन या चर्चा के बीच में ही जब कोई हमसे पूछता है कि तुम्हारी ऊँचाई कितनी है, वजन कितना है तो हम तत्काल बोल उठते हैं कि मेरी ऊँचाई ५ फीट ९ इंच है, वजन ७२ किलो है।
उस समय भी हमें यह होश नहीं रहता कि यह ऊँचाई और वजन तो शरीर का है, मेरा नहीं; क्योंकि हमारे अन्तर में अगृहीत मिथ्यात्व के कारण देह में एकत्वबुद्धि अत्यन्त गहराई से समाहित है।
बार-बार टोकने पर हम कदाचित् सावधान भी हो जावें और कहने लगे कि मुझमें वजन कहाँ है ? मैं तो चेतन तत्त्व हूँ, उसमें वजन होता ह नहीं; क्योंकि वजन तो पुद्गलद्रव्य की पर्याय है; फिर भी अन्तर में शरीर १. मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ-८२