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मोक्षमार्गप्रकाशक का सार जन-जन तक है और वह न केवल अध्यात्मप्रेमी, अपितु सम्पूर्ण जैन समाज में लगभग सभी को कण्ठस्थ है।
छहढाला के प्रभाव से मिथ्यादर्शनादि का यह अगृहीत-गृहीत संबंधी वर्गीकरण भी सभी के लिए अति परिचित विषय हो गया है।
अत: किसी को ऐसा लगता ही नहीं कि यह वर्गीकरण महापण्डित टोडरमलजी के पूर्व सहज प्राप्त नहीं होता।
पदार्थों का प्रयोजनभूत और अप्रयोजनभूतरूप में वर्गीकरण भी पण्डित टोडरमलजी की ऐसी विशेषता है कि जो उनके पर्व देखने को नहीं मिलती। समयसार गाथा ११ व १३ में भूतार्थ और अभूतार्थ की चर्चा अवश्य है, पर वह नयों के संदर्भ में है। कहा गया है कि व्यवहारनय अभूतार्थ हैं और शुद्धनय (निश्चयनय) भूतार्थ हैं। यह भी कहा गया है कि भूतार्थनय से जाने हुए नवतत्त्व ही सम्यग्दर्शन हैं। _ 'भूतार्थ' पद भूत' और 'अर्थ' ह्र इन दो शब्दों से मिलकर बना है। 'भूतार्थ' पद के उक्त दोनों शब्दों का स्थान परिवर्तन कर दें तो अर्थभूत पद बनेगा। 'अर्थ' शब्द का अर्थ 'प्रयोजन' भी होता है; इसलिए 'भूतार्थ' पद का अर्थ 'प्रयोजनभूत' ही हो जाता है।
यहाँ मोक्षमार्गप्रकाशक में जीवादि प्रयोजनभूत पदार्थों के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहा जा रहा है और समयसार में भूतार्थनय से जाने हुए जीवादि तत्त्वों के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहा है।
जैनदर्शन में नि:स्वार्थ भाव की भक्ति है। उसमें किसी भी प्रकार की कामना को कोई स्थान प्राप्त नहीं है। जैनदर्शन के भगवान तो वीतरागी. सर्वज्ञ और हितोपदेशी होते हैं । वे किसी को कुछ देते नहीं हैं, मात्र सुखी होने का मार्ग बता देते हैं। जो व्यक्ति उनके बताये मार्ग पर चले, वह स्वयं भगवान बन जाता है। अत: जिनेन्द्र भगवान की भक्ति उन जैसा बनने की भावना से ही की जाती है।
ह्र आत्मा ही है शरण, पृष्ठ-२१३
पाँचवाँ प्रवचन मोक्षमार्गप्रकाशक नामक शास्त्र में प्रतिपादित विषयवस्तु की चर्चा चल रही है। चौथे प्रवचन में चतुर्थ अधिकार में समागत विषयवस्तु की
आरंभिक चर्चा हुई। जिसमें संसार के दु:खों के कारण के रूप में अगृहीत मिथ्यादर्शन का स्वरूप स्पष्ट किया जा रहा है।
अबतक यह स्पष्ट किया गया है कि जीवादि तत्त्वार्थों का श्रद्धान ही सम्यग्दर्शन है। अत: सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के लिए जीवादि तत्त्वार्थों को जानना अत्यन्त आवश्यक है।
यहाँ एक प्रश्न संभव है कि जीवादि तत्त्वार्थों में तो सम्पूर्ण जगत आ जाता है। जीव में सभी जीव आ गये; अजीव में पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल सभी अजीव द्रव्य आ गये। आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष तथा पुण्य-पाप में जीव की सभी विकारी और अविकारी पर्यायें आ गईं। पुद्गल में भी पुद्गल की अनेक पर्यायें आ गईं। एक तरह से सम्पूर्ण जगत ही आ गया। इतना सब जानना तो केवलज्ञानी के ही हो सकता है। तो क्या सम्यग्दर्शन केवलज्ञान होने के बाद होगा?
इसी प्रश्न के स्पष्टीकरण में ही तो पण्डित टोडरमलजी ने तत्त्वों के साथ 'प्रयोजनभूत' पद का प्रयोग किया है। तात्पर्य यह है कि यहाँ सभी द्रव्यों को, सभी गुण और पर्यायों के साथ युगपत् जानने की बात नहीं है; यहाँ तो जिन गुण और पर्यायों के साथ जीवादि को जानना आत्महित की दृष्टि से प्रयोजनभूत है, मात्र उन्हें ही जानना है, सबको नहीं। ___ अनन्त जीव, अनन्तानन्त पुद्गल, एक धर्म, एक अधर्म, एक आकाश और असंख्यात कालाणु ह इसप्रकार इस लोक में छह प्रकार के अनन्तानंत द्रव्य हैं। प्रत्येक द्रव्य में अनन्त गुण हैं, प्रत्येक गुण में अनन्तानंत पर्यायें हैं। अनेक द्रव्यों के संयोगरूप अनंत द्रव्य पर्यायें हैं। आगम के आधार से
ह्र आत्मा हाह शरण