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मोक्षमार्गप्रकाशक का सार
आयुकर्म और सातावेदनीय कर्म का अभाव होने से प्रतिकूल - अनुकूल संयोगों का अभाव हो गया; अतः उनसे होनेवाले सांसारिक सुख-दुःख का भी अभाव हो गया।
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इसप्रकार घाति और अघाति कर्मों के अभाव होने से तज्जन्य आकुलता का अभाव हो जाने से सिद्ध भगवान अनंत अतीन्द्रिय आनन्द को प्राप्त हो गये हैं। अतः अब वे अनन्तकाल तक प्रतिसमय अनन्त, अतीन्द्रिय, अव्याबाध आनन्द (सुख) का उपभोग करते रहेंगे।
इसप्रकार इस तीसरे अधिकार का समापन करके अन्त में उपदेश देते हुए, आदेश देते हुए, प्रेरणा देते हुए पण्डित टोडरमलजी लिखते हैं
“हे भव्य ! हे भाई !! तुझे जो संसार के दुःख बतलाए सो, वे तुझ पर बीतते हैं या नहीं ह्र यह विचार कर; और तू जो उपाय करता है, उन्हें झूठा बतलाया, सो ऐसे ही हैं या नहीं ह्न यह विचार । तथा सिद्धपद प्राप्त होने पर सुख होता है या नहीं, उसका भी विचार कर ।
जैसा कहा है, वैसी ही प्रतीति तुझे आती हो तो तू संसार से छूटकर सिद्धपद प्राप्त करने का हम जो उपाय कहते हैं; वह कर, विलम्ब मत कर । यह उपाय करने से तेरा कल्याण होगा।"
इसके बाद आनेवाले चौथे अधिकार में पण्डितजी मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र का निरूपण आरंभ करते हैं; जो सातवें अधिकार तक चलेगा; जिसमें अगृहीत मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र तथा गृहीत मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र का स्वरूप विस्तार से समझाया जायेगा।
'संसार में सर्वत्र दुःख ही दुःख हैं, सुख तो एकमात्र मोक्ष में ही है' ह्र विगत अधिकारों में यह सिद्ध करने के उपरान्त अब उक्त दुःखों के मूलकारण क्या हैं और मुक्ति की प्राप्ति कैसे होती है ? ह्न इस बात पर विचार करते हैं।
१. मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ-७५
चौथा प्रवचन
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इस बात का संकेत वे इस चौथे अधिकार के मंगलाचरण में ही दे देते हैं; जो इसप्रकार है ह्न
इस भव के सब दुःखनि के कारण मिथ्याभाव । तिनकी सत्ता नाश करि प्रगटै मोक्ष उपाव ।।
इस संसार के सभी दुःखों के मूल कारण मिथ्याभाव हैं। उनकी सत्ता का नाश होने पर ही मोक्ष का उपाय प्रगट होता है।
मिथ्याभाव का अर्थ है मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र । इन तीनों का एक नाम मिथ्यात्व है ।
ध्यान रहे मिथ्यात्व शब्द का प्रयोग अकेले मिथ्यादर्शन के अर्थ में भी होता है और मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र ह्न इन तीनों के समुदाय के रूप में भी होता है।
इसीप्रकार सम्यक्त्व शब्द के अर्थ के संदर्भ में भी समझना चाहिए। अकेले सम्यग्दर्शन के अर्थ में भी सम्यक्त्व शब्द का प्रयोग देखा जाता है और सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ह्न इन तीनों के समुदाय के रूप में भी होता है।
इसप्रकार हम कह सकते हैं कि मिथ्यात्व अनंत दुःख (संसार) का कारण है और सम्यक्त्व अनंत सुख (मोक्ष) का कारण है।
विगत अधिकारों की भांति इस अधिकार के आरंभ में भी वे रोगी और वैद्य के उदाहरण से अपनी बात स्पष्ट करते हैं।
विगत अधिकारों में रोग के स्वरूप का निदान किया गया था और अब उसके कारण की चर्चा चल रही है, वदपरहेजी की बात चल रही है। इसीप्रकार विगत अधिकारों में दुःख के स्वरूप का निदान किया गया था और अब यहाँ उसके कारणों की मीमांसा की जा रही है।
अपनी कथन शैली का औचित्य सिद्ध करते हुए पण्डित टोडरमलजी लिखते हैं कि जिसप्रकार वैद्य रोग के कारणों को विशेषरूप से बताये तो रोगी कुपथ्य का सेवन न करे, वदपरहेजी से बचे तो रोग रहित हो जावे;