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है; अतः निज भगवान को जानना, पहिचानना और उसका ध्यान करना ही उसकी आराधना है ।
सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र की उत्पत्ति इस निज भगवान आत्मा के आश्रय से ही होती है; क्योंकि निश्चय से निज भगवान आत्मा को निज जानना ही सम्यग्ज्ञान है, उसे ही निज मानना, 'यही मैं हूँ' - ऐसी प्रतीति होना सम्यग्दर्शन है
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और उसका ही ध्यान करना, उसी में जम जाना, रम जाना, लीन हो जाना सम्यक्चारित्र है ।
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अष्टद्रव्य से पूजन मन्दिर में विराजमान 'पर - भगवान' की की जाती है और ध्यान शरीररूपी मन्दिर में विराजमान 'निज-भगवान' आत्मा का किया जाता है। यदि कोई व्यक्ति निज - आत्मा को भगवान मानकर मन्दिर में विराजमान भगवान के समान स्वयं की भी अष्टद्रव्य से पूजन करने लगे तो उसे व्यवहार-विहीन ही माना जायेगा; वह व्यवहारकुशल नहीं, अपितु व्यवहारमूढ़ ही है ।
इसीप्रकार यदि कोई व्यक्ति आत्मोपलब्धि के लिए ध्यान भी मन्दिर में विराजमान भगवान का ही करता रहे तो उसे भी विकल्पों की ही उत्पत्ति होती रहेगी, निर्विकल्प आत्मानुभूति कभी नहीं होगी; क्योंकि निर्विकल्प आत्मानुभूति निज भगवान आत्मा के आश्रय से ही होती है । निर्विकल्प आत्मानुभूति के बिना सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र
मैं स्वयं भगवान हूँ
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