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डॉ. भारिल्ल की कृतियों में समागत
विचार-बिन्दु धर्म का आरम्भ भी आत्मानुभूति से ही होता है और पूर्णता भी इसी की पूर्णता में। इससे परे धर्म की कल्पना भी नहीं की जा सकती। आत्मानुभूति ही आत्मधर्म है। साधक के लिए एकमात्र यही इष्ट है। इसे प्राप्त करना ही साधक का मूल प्रयोजन है।
___ - मैं कौन हूँ, पृ. १० ___x x x x
x यह भव, भव का अभाव करने के लिए है, किसी पक्ष या सम्प्रदाय के पोषण के लिए नहीं।
-- आप कुछ भी कहो, पृ. ३९ (४१)