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________________ जिनधर्म-विवेचन यह संसारी जीव, पर्याय में दुःखमय है, इस पर्यायगत दुःख का अभाव कर पर्याय में ही सुख प्रगट करना है। वर्तमानकालीन जीवन, सुखमय बनाना है। कार्य, पर्याय में ही होता है - ऐसा ज्ञान, हमें पर्याय के ज्ञान से ही प्रगट होता है। १९६ ५. प्रत्येक द्रव्य का परिणमन, उस द्रव्य के पर्यायस्वभाव के कारण ही होता है; ऐसा जानने से निमित्ताधीन दृष्टि मिटती है और स्वभावका सामर्थ्य प्रगट होता है। २३२. प्रश्न – पर्याय को अथवा द्रव्य-गुण-पर्याय, तीनों को जानने से हमें क्या और भी कुछ विशेष लाभ प्राप्त होते हैं? उतर - हाँ, अवश्य अनेक लाभ प्राप्त होते हैं। भगवान बनने का साक्षात् उपाय समझ में आता है। इसका विवेचन निम्न प्रकार है १. अरहन्त भगवान को हम हमारे ज्ञान में स्थापित कर विचार करते हैं- “हे भगवन्! आपका जीवद्रव्य और मेरा जीवद्रव्य समान ही है। दोनों के जीवद्रव्य में परस्पर कुछ भी भेद / अन्तर नहीं है, समानता ही है" - यह विषय द्रव्य-गुण-पर्याय को जानने से हमें समझ में आता है। २. भगवान के जीवद्रव्य में जितने अनन्त गुण हैं, उतने ही अनन्त गुण मेरे जीवद्रव्य में भी हैं; यह तथ्य भी हमारी समझ में आ जाता है। वर्तमान में भी मैं जीवद्रव्य, द्रव्य और गुणों की अपेक्षा अरहन्त परमात्मा के समान ही हूँ ऐसा निर्णय होता है। ३. पर्याय की अपेक्षा विचार करते हैं तो अरहन्त की पर्याय अनन्त सुखरूप है, पर मैं वर्तमानकाल में उन जैसा पर्याय में सुखरूप नहीं हूँ, दुःखी हूँ - यह भी बात स्पष्ट हो जाती है। ४. अब यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि मुझे पर्याय में अरहन्त के समान होने के लिए द्रव्य, गुण और पर्याय इन तीनों में से चिन्तन में किसको मुख्य रखना है? अर्थात् द्रव्य-गुण की समानता को मुख्य रखना है अथवा पर्याय की असमानता का विचार करना है? (99) पर्याय-विवेचन १९७ इसका उत्तर तो यही है कि जानना तो द्रव्य-गुण-पर्याय तीनों को है; तथापि चिन्तन में जिनमें समानता हो, उनको ही मुख्य करना चाहिए; क्योंकि द्रव्य एवं गुणों की समानता को मुख्य किए बिना भगवान बनने का उपाय और उत्साह प्रगट नहीं होता। ५. प्रकृत्ति प्रदत्त एवं अनादि से स्वयमेव ही प्राप्त द्रव्य-गुणों की समानता का चिन्तन एवं ध्यान ही पर्याय में भगवान बनने का उपाय है - यह परम सत्य विषय हमारी समझ में आता है। यही द्रव्य-गुण- पर्याय के स्वरूप जानने का अनुपम लाभ है। अरहन्त भगवान का जीवद्रव्य एवं उनके ज्ञानादि अन मेरा जीवद्रव्य एवं मेरे ज्ञानादि अनन्त गुण समान ही हैं, इसलिए मैं एवं प्रत्येक जीव बिना पुरुषार्थ किए ही द्रव्य-गुण की अपेक्षा अरहन्त भगवान समान ही है। मात्र वर्तमानकालीन पर्याय में ही मुझे पुरुषार्थ करना है अर्थात् अपने भगवानपने को स्वीकार करना है। करने योग्य कार्य तो मात्र इतना ही है। जब कोई भी संसारी जीव अपने निज भगवान आत्मा का यथार्थ ध्यान करता है, सर्वोत्कृष्ट ध्यान करता है तो वह क्रम से पर्याय में भगवान बन जाता है। जो शक्तिरूप भगवानपना प्रत्येक जीव में अनादि से स्वयमेव है, उसे ही पर्याय में प्रगट करना है; बाहर से कुछ लाना अथवा मँगवाना नहीं है। इस विषय के विशद् ज्ञान के लिए प्रवचनसार गाथा ८० एवं उसकी दोनों टीकाओं को जरूर देखें । २३३. प्रश्न - पर्याय के कितने भेद हैं? उतर - पर्याय के दो भेद हैं - १. व्यंजनपर्याय और २. अर्थपर्याय । २३४. प्रश्न - व्यंजनपर्याय किसे कहते हैं? उतर - प्रत्येक द्रव्य के प्रदेशत्वगुण के कार्य को व्यंजनपर्याय कहते हैं। अथवा स्थूलपर्यायों को व्यंजनपर्याय कहते हैं।
SR No.009455
Book TitleJin Dharm Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain, Rakesh Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages105
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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