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________________ जिनधर्म-विवेचन यदि भोजन में से शान्ति आती होती तो जिस थाली में भोजन परोसा गया था, उस थाली को भी शान्ति मिलना चाहिए तथा जिन बर्तनों में भोजन बनाया गया है, उन्हें भी शान्ति मिलना चाहिए। आप कहेंगे कि थाली, बर्तन आदि तो जड़ हैं, अजीव हैं; उन्हें सुख-शान्ति कैसे मिलेगी ? सुख, शान्ति और समाधान तो जीव को ही मिलेगा, अन्य द्रव्यों को नहीं। इसी प्रकार पर्याय की परिभाषा हमें बोध १९२ है कि गुण में से ही पर्याय आएगी; अन्य पदार्थों में से नहीं । पंचाध्यायी, प्रथम खण्ड, श्लोक १६५ में कहा भी है कि जो क्रमवर्ती, अनित्य, व्यतिरेकी, उत्पाद-व्ययरूप और कथंचित् धौव्यात्मक होती हैं; उन्हें पर्याय कहते हैं। २२७. प्रश्न - पर्याय के अन्य नाम कौन-कौन से हैं? उतर - अवस्था, हालत, दशा, क्रिया, कार्य, परिणमन, परिणाम, परिणति, अंश, भाग, छेद, क्रमवर्ती, व्यतिरेकी, अनित्य, विशेष आदि अनेक नाम पर्याय के हैं । २२८. प्रश्न - पर्याय का स्वरूप जानने से हमें क्या लाभ है ? उतर - पर्याय का स्वरूप जानने से हमें निम्न अनेक लाभ हैं - १. विश्व में रहनेवाले जाति अपेक्षा छह द्रव्यों में और संख्या अपेक्षा अनन्तानन्त द्रव्यों में अर्थात् प्रत्येक द्रव्य में और प्रत्येक द्रव्य में रहनेवाले अनन्तानन्त गुणों में अर्थात् प्रत्येक गुण में भी नियम से प्रतिसमय परिणमन हो रहा है। गुणों के परिणमन या द्रव्य का परिणमन, दोनों का एक ही अर्थ है; क्योंकि द्रव्य गुणों का ही तो समूह है। भेद विवक्षा से कहना हो तो गुणों के परिणमन को पर्याय कहते हैं और अभेद विवक्षा से कहना हो तो द्रव्य के परिणमन को पर्याय कहते हैं। मेरी पर्यायें, मेरे जीवद्रव्य अथवा उसके ज्ञानादि गुणों में से ही हैं अर्थात् मेरे अच्छे-बुरे परिणाम के लिए मैं स्वयं स्वतन्त्रतया उत्तरा हूँ - ऐसा पक्का निर्णय होने पर दूसरे द्रव्यों की अपेक्षा नष्ट हो जाती है। (97) पर्याय-विवेचन १९३ परद्रव्य और उनके गुणों से मेरा कुछ भी अच्छा-बुरा होना सम्भव नहीं है; अतः पर की अपेक्षा छोड़कर जीव, स्वयं आत्म-सन्मुख होता है। आत्म-सन्मुख होते ही सुखी जीवन का प्रारम्भ हो जाता है तथा यह दृढ़ श्रद्धान हो जाता है कि 'मैं ही मेरा कर्ता-धर्ता पर से कुछ भी सम्बन्ध नहीं।' साथ ही श्रद्धा सम्यक् होते ही ज्ञान में भी सम्यक्पना आ ही जाता है। २. परद्रव्य का परिणमन भी उसके परिणमन स्वभाव से होता है; उसे इष्ट-अनिष्ट कहने / मानने का मुझे कोई अधिकार नहीं है - ऐसा निर्णय होते ही आकुल-व्याकुल होने का क्रम टूट जाता है और जीवन में स्वयमेव शान्ति - समाधान का अवतार होता है। ३. पर्यायों के यथार्थ ज्ञान से ही द्रव्य का निर्णय होता है। जैसे - मेरे हाथ में यह 'पेन' है, पेन पुद्गलद्रव्यात्मक पदार्थ है - यह विषय ह कैसे जाना? इसका उत्तर सहज ही आएगा कि पेन में भी जो पौद्गलिक स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण ये विशेष गुण हैं, वे सब हमारे जानने में आ रहे हैं; अतः हमने यह निर्णय किया कि पेन भी एक पुद्गलद्रव्यों से रचित एक पदार्थ है । २२९. हम पुनः प्रश्न करते हैं आपने पेन को स्पर्शादि गुणों से जाना अथवा उसके आकार-प्रकार, कठोर - मुलायम आदि स्पर्श की और नीले-पीले आदि वर्ण की पर्यायों को देखकर जाना? हमने पेन के कठोर - मुलायम स्पर्श और नीलेपीले रंग आदि पर्यायों से यह जाना कि यह पेनरूप पदार्थ पुद्गलद्रव्यात्मक है । इस उदाहरण से सिद्ध होता है कि हम पर्यायों से ही गुण और द्रव्य का निर्णय कर पाते हैं, हमारे पास अन्य कोई उपाय नहीं है। आपका उत्तर - यदि कोई आपसे कहता है- मैं जीवद्रव्य को जानना तो चाहता हूँ, आप मुझे उस जीवद्रव्य का ज्ञान करा दीजिए; लेकिन मेरी एक शर्त है कि मैं जीव को उसकी नर-नारकादि या सिद्ध पर्यायों से नहीं जानना चाहता ।
SR No.009455
Book TitleJin Dharm Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain, Rakesh Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages105
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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