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जिनधर्म-विवेचन होता है, जिसके कारण द्रव्य के सर्वथा निराकारपने का प्रसंग आता है अर्थात् द्रव्य के ही अभाव होने का प्रसंग आता है ।
द्रव्य का आधार / आश्रय प्रदेश ही तो है। प्रदेशों के कारण ही द्रव्य का अस्तित्व रहता है। यदि प्रदेश ही नहीं रहेंगे तो द्रव्य का आश्रयभूत स्वक्षेत्र कौन रहेगा? अतः आश्रय के बिना द्रव्य के ही अभाव का ( न्यायसंगत ) प्रसंग आता है।
२१९. प्रश्न- प्रदेशत्वगुण को जानने से हमें क्या-क्या लाभ होते हैं? उत्तर - प्रदेशत्वगुण को जानने से हमें अनेक लाभ होते हैं -
१. जीव के छोटे-बड़े आकार से सुख दुःख का कोई सम्बन्ध नहीं है। ऐसा निर्णय होता है। उदाहरणार्थ विशालकाय कामदेव बाहुबली, सिद्ध भगवान बनकर सिद्धालय में अपने बड़े आकार के साथ विराजमान हैं और चक्रवर्ती भरत सिद्ध भगवान के रूप में उनसे थोड़े छोटे आकार के साथ विराजमान हैं; पर दोनों के अव्याबाध अनन्त क्षायिकसुख में कोई अन्तर नहीं है।
२. किसी छोटे आकार के व्यक्ति को क्रोध आया तथा दूसरे विशालकाय व्यक्ति को क्रोध आया; पर दोनों को अपने विभाव परिणामों के कारण समान ही दुःख हुआ है। इसप्रकार बाह्य काया के आकार के कारण दुःख में हीनाधिकता नहीं हुई।
३. प्रत्येक द्रव्य का आकार, उसके प्रदेशत्वगुण के कारण ही है; अतः हम किसी द्रव्य का आकार बना सकते हैं- ऐसी मान्यता निकल जाती है।
जैसे - छोटे बच्चे खेल-खेल में गीली मिट्टी या रेत में अपना पैर फँसाकर घरौंदा बनाते हैं। आपने भी ऐसे खेल खेलकर मनोविनोद किया ही होगा। अब यहाँ हम विचार करें कि बच्चों ने मिट्टी या रेत में जो घरौंदा बनाया है, वह उनके पैरों के कारण बना है अथवा मिट्टी में या रेत में जो प्रदेशत्वगुण है, उसके कारण बना है?
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प्रदेशत्वगुण - विवेचन
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यदि आप कहोगे कि पैरों के कारण घरौंदा बना है तो फिर पैर तो सदैव विद्यमान रहते हैं; अतः घरौंदा हमेशा ही बनते रहना चाहिए; किन्तु ऐसा नहीं होता है। इससे सिद्ध होता है कि बच्चों द्वारा बनाया गया घरौंदा उनके पैरों के कारण नहीं, अपितु मिट्टी अथवा रेतरूपी पुद्गल के प्रदेशत्वगुण के कारण बना है; अन्य कारण से नहीं ।
४. हमने किसी लकड़ी में कील ठोकी और वह कील उसमें फँस गई। कुछ काल व्यतीत होने पर कील निकालने से लकड़ी में एक छोटासा गड्डा बन गया। उस गड्डेरूप आकार की रचना कील अथवा व्यक्ति के कारण नहीं; अपितु लकड़ी के अपने प्रदेशत्वगुण के कारण बनी है। ऐसा समझने से हमारी कर्ताबुद्धि का सहज ही नाश हो जाता है -
२२०. शंका - हम प्रत्यक्ष आँखों से देख रहे हैं कि व्यक्ति ने लकड़ी में कील ठोकी, जिससे लकड़ी में एक छोटा गड्डा बन गया, पर आप समझा रहे हैं कि यह कार्य प्रदेशत्वगुण के कारण हुआ; यह हमारी समझ में नहीं आता?
समाधान - आपको यहाँ अत्यन्त गम्भीरतापूर्वक विचार करने की आवश्यकता है, जिससे सहज ही वस्तुस्थिति समझ में आ जाएगी।
१. हमारी-आपकी दृष्टि, संयोगों पर टिकी हुई होने से संयोगदृष्टि है या बाह्यदृष्टि है। यहाँ विवेचन स्वभावदृष्टि से चल रहा है। सर्वज्ञ भगवान को अथवा वस्तुस्वरूप को स्वभावदृष्टि ही मान्य है। जब हम वस्तुस्वभाव की मुख्यता से देखेंगे तो सब समझ में आ जाएगा।
२. अनादिकाल से अज्ञानी संयोग-दृष्टि से देखता चला आया है। और उसे मिथ्यात्ववश छोड़ना भी नहीं चाहता, इसीलिए दुःखी होता है; अतः हमें स्वभाव - दृष्टि स्वीकारने का प्रयत्न करना चाहिए ।
स्वभाव दृष्टि का स्वीकार करते ही हमें अपना तथा पर के अकर्तापने का सहज निर्णयात्मक ज्ञान हो जाएगा। अकर्तापना और ज्ञातापना, दोनों