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________________ १६६ जिनधर्म-विवेचन भगवान महावीर के समवसरण में ६० हजार प्रश्न पूछनेवाले राजा श्रेणिक को क्षायिक सम्यग्दृष्टि श्रावकोत्तम संज्ञा दी गई है। सेठ सुदर्शन भी अपने गृहस्थ जीवन में अष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या तथा पूर्णिमा के दिन में शमशान में सामायिक/आत्मध्यान करने के लिए जाते थे - इस बात को जैन जगत का बच्चा-बच्चा जानता है। अरे भाई! मात्र मनुष्य ही क्या? तिर्यंच भी चौथे-पाँचवे गुणस्थनवर्ती रहते हैं. उन्हें भी मोक्षमार्गी कहा जाता है। अतः स्वानुभवरूप कार्य के लिए व्रती या मुनि होने की कोई शर्त आवश्यक नहीं है। भगवान महावीर और भगवान पार्श्वनाथ के जीवों ने भी शेर तथा हाथी की पर्याय में सम्यग्दर्शन/आत्मानुभव प्राप्त किया ही था। १९१. प्रश्न - क्या सम्यग्दर्शन और स्वानुभव एक ही है? उत्तर - सम्यग्दर्शन और स्वानुभव एक तो नहीं है; क्योंकि सम्यग्दर्शन श्रद्धागुण की पर्याय है और स्वानुभव ज्ञानगुण की पर्याय है। कहीं-कहीं स्वानुभव को श्रद्धा, ज्ञान तथा चारित्र - इन तीनों गुणों की सम्मिलित पर्यायरूप अथवा अनन्त गुणों की अखण्ड पर्यायरूप भी बताया जाता है। १९२. प्रश्न - फिर आप यहाँ सम्यग्दर्शन और आत्मानुभव दोनों का एक ही अर्थ क्यों बता रहे हैं? उत्तर - हमने दोनों को एक नहीं बताया है, किन्तु सम्यग्दर्शन स्वानुभव के बिना उत्पन्न नहीं होता; अतः दोनों की एक साथ उत्पत्ति होने की मुख्यता से दोनों को एक कहा है - ऐसा समझना चाहिए। ध्यान रहे - सम्यग्दर्शन तो प्रतीतिरूप है और वह सदैव रहता है, परन्तु वही सम्यग्दृष्टि जब निज शुद्धात्माभिमुख पुरुषार्थ करता है, तब स्वानुभव भी बीच-बीच में होता रहता है। यहाँ सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति के लिए और उसको बनाये रखने के लिए स्वानुभव/स्वानुभूति/शुद्धोपयोग अनिवार्य ही है - इस बात को स्पष्ट करने के लिए ही सम्यग्दर्शन और आत्मानुभव को कथंचित् एक कहा गया है। ___ इसप्रकार 'प्रमेयत्वगुण' का १६ प्रश्नोत्तर के साथ विवेचन पूर्ण होता है। अगुरुलघुत्वगुण-विवेचन || मङ्गलाचरण ।। यह गुण अगुरुलघु भी सदा, रखता महत्ता है महा; गुण-द्रव्य को पररूप यह, होने न देता है अहा। निज द्रव्य-गुण-पर्याय सब, रहते सतत निज भाव में: कर्ता न हर्ता अन्य कोई, यों लखो स्व-स्वभाव में।। वस्तु-व्यवस्था में अगुरुलघुत्वगुण भी हमेशा ही बहुत बड़ा महत्त्व रखता है। यह गुण, वस्तुगत द्रव्य-गुण-पर्याय को अपने स्वभावरूप ही रखता है; अन्य स्वरूप होने नहीं देता। द्रव्यगत सर्व ही गुण एवं पर्यायें सतत् ही अपने-अपने स्वभाव में ही रहते हैं अर्थात् वे स्वभाव का उल्लंघन नहीं करते। इस अगुरुलघुत्वगुण के कारण ही कोई भी द्रव्य, अन्य किसी भी द्रव्य-गुण-पर्याय का कर्ता नहीं होता। १९३. प्रश्न - अब यहाँ अगुरुलघुत्वगुण का कथन क्यों किया जा रहा है? उत्तर - प्रत्येक द्रव्य परिणमन करते हुए अपने स्वरूप को छोड़कर क्या अन्य द्रव्यरूप हो जाता है? - इसतरह की शंका का निराकरण करने हेतु अगुरुलघुत्वगुण का कथन आचार्यों ने किया है, जो आवश्यक है; अन्यथा जीवादि सर्व द्रव्यों की अपना-अपना स्वरूप छोड़कर, अन्य द्रव्यरूप हो जाने की आपत्ति आ सकती है। १९४. प्रश्न - एक द्रव्य दूसरे द्रव्यरूप परिणमित नहीं होता है, मात्र इतना ही सिद्ध करने के लिए अगुरुलघुत्वगुण का कथन किया जाता है या और भी कुछ प्रयोजन है? अगुरुलघुत्वगुण का स्वरूप स्पष्टरूप से बताइए। उत्तर - मात्र इतना ही नहीं, अन्य विषयों के स्पष्टीकरण के लिए भी अगुरुलघुत्वगुण का कथन किया जा रहा है। जैसे - (84)
SR No.009455
Book TitleJin Dharm Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain, Rakesh Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages105
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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