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________________ १६२ जिनधर्म-विवेचन प्रमेयत्वगुण-विवेचन १६३ ४. यदि मोक्षमार्ग ही नहीं रहता है तो मोक्ष भी सिद्ध नहीं होता है। ५. यदि मोक्ष सिद्ध नहीं होता है तो णमो सिद्धाणं' का मन्त्र भी अनुपयोगी सिद्ध हो जाता है। ६. इसी प्रकार मोक्षमार्ग सिद्ध नहीं होने से आचार्य, उपाध्याय, साधु आदि हमारे प्राणप्रिय गुरुओं की उपयोगिता भी सिद्ध नहीं होती। ७. जैन जगत में सर्वमान्य 'छहढाला' (पाँचवीं ढाल) में भी कहा है - 'जब ही जिय आतम जाने, तब ही जिय शिवसुख ठाने' इसप्रकार प्रमेयत्वगुण को स्वीकार करना अत्यावश्यक है। १८८. प्रश्न - प्रमेयत्वगुण को जानने से हमें क्या-क्या लाभ प्राप्त होते हैं? यह विस्तारपूर्वक स्पष्ट करें। उत्तर - प्रमेयत्वगुण को जानने से हमें अनेक लाभ प्राप्त होते हैं - १. प्रत्येक जीव में प्रमेयत्वगुण होने से वह अपनी आत्मा को जान सकता है - ऐसा सहज विश्वास उत्पन्न होता है। २. जो प्रमेयत्वगुण को यथार्थरूप से स्वीकार करता है, वह यह जान जाता है कि उसके पाप-कार्यों को अरहन्त-सिद्ध भगवान अपने केवलज्ञान में जान रहे हैं, जिससे उसे पाप-कार्यों को छोड़ने की भावना हुए बिना नहीं रहती, अतः अपने पाप-कार्यों को छोड़कर धर्म प्रगट करने के लिए उस जीव को अनुकूलता होती है। जैसे - लौकिक जीवन में भी अपने बड़े-बूढ़ों तथा आदरणीय व्यक्तियों के सामने सामान्य अनुचित कार्य करने में भी मनुष्य को संकोच होता है तो फिर अनन्त केवलज्ञानियों के जानते हुए पाप-कार्य करने में स्वाभाविकरूप से शिथिलता आती है और जीवन सदाचारमय हो जाता है। यही सदाचारमय जीवन - स्वाभाविक, स्थायी और सुखदायक वीतरागी धर्म प्राप्त करने का निमित्त बनता है। १८९. शंका - छिपकर किये गये पाप कोई नहीं जानता - इस कथन में कहाँ तक सत्यता है? समाधान - इसमें सत्यता का अंश भी नहीं है; पाप करनेवाला स्वयं जीव है, वह तो अपने पाप को स्वयं जान ही रहा है तथा छिपकर कार्य करना भी स्वयं पाप है, अतः सामान्यतः पाप तो हो ही गया। इसप्रकार छिपकर किया गया पाप कोई नहीं जानता - यह विचार ही मिथ्यात्वजन्य तथा अज्ञानजन्य महापाप है; क्योंकि इसमें - • अनन्त सर्वज्ञ भगवान का विरोध होता है। • प्रमेयत्वगुण की मान्यता नहीं रहती है। अनन्त सिद्ध भगवन्तों एवं लाखों विद्यमान केवलज्ञान अरहन्त भगवन्तों के अस्तित्व की स्वीकृति नहीं होती है। अवधिज्ञानियों तथा मनःपर्ययज्ञानियों की सत्ता का भी निषेध हो जाता है। इसप्रकार हमारे पाप-कार्यों को अरहन्त और सिद्ध भगवान जानते हैं - ऐसा ज्ञान होने से पाप छोड़ने की प्रेरणा मिलती है। ३. सभी द्रव्यों में प्रमेयत्वगुण पाया जाता है। अतः वे किसी न किसी ज्ञान द्वारा जाने जा रहे हैं; इसतरह केवलज्ञान की सिद्धि होती है। ४. 'अनन्त सिद्ध जीवों के समान मैं भी केवलज्ञानस्वभावी आत्मा हूँ। मेरे ज्ञानगुण में से अभी नहीं तो भविष्य में ज्ञानगुण की केवलज्ञानपर्याय अवश्य प्रगट होगी; जिससे मैं स्वयं अनन्तज्ञानी एवं अनन्तसुखी हो जाऊँगा' - ऐसा आत्मविश्वास उत्पन्न होता है। ५. परद्रव्यों के साथ मेरा मात्र ज्ञेय-ज्ञायकसम्बन्ध है. कर्ता-कर्म या भोग्य-भोक्ता या आदि सम्बन्ध नहीं है - ऐसा ज्ञान होने से परद्रव्यों के प्रति कर्तृत्व-भोक्तृत्वबुद्धि मिट जाती है। जैसे - मेरे हाथ में यह पेन है। यह छह द्रव्यों में कौनसा द्रव्य है - ऐसा पूँछने पर आपका सहज उत्तर होता है कि यह पुद्गलद्रव्य है; क्योंकि इसमें स्पर्शादि विशेषगुण हैं। आपका यह उत्तर सही है, फिर भी मेरा यहाँ आपसे दूसरा प्रश्न है कि प्रमेयत्वगुण की अपेक्षा इस पेन को क्या कहते हैं? पेन में प्रमेयत्वगुण है या नहीं है? - ऐसा प्रश्न होने पर आप स्वीकार करते हैं (82)
SR No.009455
Book TitleJin Dharm Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain, Rakesh Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages105
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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