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________________ जिनधर्म-विवेचन सामान्यरहित विशेष और विशेषरहित सामान्य का निषेध, अन्वयव्यतिरेक, शुद्धाशुद्ध द्रव्य-गुण-पर्याय आदि विषयों का विस्तृत विवेचन किया गया है। ७. सप्तम अध्याय में 'विभिन्न दर्शनों के सन्दर्भ में द्रव्य-गुणपर्याय का विवेचन' किया गया है; इसमें वेद-ब्राह्मण-आरण्यक; उपनिषद्गीता; चार्वाक-बौद्ध-जैन, वैशेषिक-नैयायिक-सांख्य-योग-मीमांसावेदान्त आदि भारतीय दर्शनों तथा माइलेशियन-पाइथागोरसहेरेक्लाइट्स-सुकरात-प्लेटो -अरस्तू-जीनो-प्रोक्लस् - ऐरिजोना-ब्रूनोकेम्पानोला-ब्रेकन आदि पाश्चात्य दर्शनों के सन्दर्भ में द्रव्य-गुण-पर्याय की मीमांसा की गई है। ८. अष्टम अध्याय में 'उपसंहार' करते हुए द्रव्य-गुण-पर्याय के परिज्ञान की महती आवश्यकता, प्रस्तुत शोध ग्रन्थ की मौलिकता आदि विषयों के साथ-साथ अनेक परिशिष्टों का समावेश किया गया है, जिनमें पण्डित दीपचन्दजी शाह कासलीवाल की सवैया टीका तथा परमात्मपुराण के संस्कृत अनुवाद एवं लेखक के ‘पज्जयमूढा हि परसमया' ह्र यह लेख प्रकाशित किये गये हैं।" यह शोध प्रबन्ध भी शीघ्र ही प्रकाशित किया जाएगा, जिससे पाठकों को द्रव्य-गुण-पर्याय से सम्बन्धित जिज्ञासाओं को उपशान्त करने में अवश्य मदद मिलेगी ह्र ऐसा मेरा विश्वास है। - डॉ. राकेश जैन शास्त्री, नागपुर जिनधर्म-विवेचन भूमिका १. पूर्ण वीतरागी, सर्वज्ञ व हितोपदेशी को जिनवरवृषभ या जिनेन्द्र कहते हैं। २. सभी मुनिराज एवं गणधर परमेष्ठी जिनवर हैं अथवा छठवें-सातवें गुणस्थान में झूलनेवाले एवं श्रेणी में आरोहण करनेवाले भावलिंगी मुनिराज को जिनवर कहते हैं । ३. जो वीतरागी, सर्वज्ञ व हितोपदेशी जिनेन्द्र भगवान की आज्ञा का अनुसरण करते हैं, उन्हें जिन कहते हैं अथवा सभी सम्यग्दृष्टियों को जिन कहते हैं तथा जो अपनी इन्द्रियों को जीत लेते हैं, उन्हें जिन कहते हैं। ४. जिनेन्द्र भगवान ने जिस धर्म का कथन किया है, उसे जिनधर्म कहते हैं। ५. जो जिनवरवृषभ, जिनवर, जिन एवं जिनधर्म के अनुयायी हैं, उन्हें जैन कहते हैं। श्री अरहन्त भगवान को भी जिनेन्द्रदेव कहते हैं। सभी तीर्थकर परमात्मा तो जिनेन्द्र हैं ही। अनादिकाल से आज तक अनन्त जीव जिनेन्द्र हो चुके हैं। भविष्यकाल में भी अनन्त जीव जिनेन्द्र होंगे तथा वर्तमानकाल में भी लाखों जीव विदेहक्षेत्र में जिनेन्द्र अवस्था में विद्यमान हैं। ___ यदि कोई सामान्य मुनिराज भी पूर्ण वीतरागी होकर सर्वज्ञ होते हैं, उनको भी जिनेन्द्र कहते हैं। ध्यान रहे - दिव्यध्वनि से उपदेश देना, जिनेन्द्र बनने के लिए अनिवार्य नहीं हैं; क्योंकि मूक केवली भी जिनेन्द्र ही होते हैं। अनादिकाल से जिनेन्द्र भगवन्तों ने दिव्यध्वनि के माध्यम से जिनधर्म का उपदेश दिया है अर्थात् अनादिकाल से अनन्त जिनेन्द्र भगवन्तों ने अनन्त बार अनन्त जीवों के आत्मकल्याण के लिए जिस अनुपम धर्म का उपदेश दिया है, उसे ही जिनधर्म या जैनधर्म कहते हैं। आज से करीब ७०-८० वर्ष पहले गुरुनां गुरु स्वनामधन्य गुरुवर्य पण्डित श्री गोपालदासजी बरैया ने अनेक आचार्यों द्वारा रचित अनेक शास्त्रों के आधार से सामान्य लोगों को जिनधर्म का प्राथमिक ज्ञान कराने की भावना से हिन्दी भाषा में जैन सिद्धान्त प्रवेशिका नामक रचना लिखी है। यह रचना ६७१ प्रश्नोत्तरों में निबद्ध है। (5)
SR No.009455
Book TitleJin Dharm Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain, Rakesh Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages105
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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