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जिनधर्म-विवेचन
२. कालद्रव्य के कारण ही हम सुबह, दोपहर और शाम ऐसे व्यवहारकाल को जान सकते हैं।
३. मैं छोटी उम्र का, माताजी - पिताजी बड़ी उम्र के और यह बड़ा भाई, यह छोटी बहन - यह व्यवहारकाल का उपकार है। ४. अभी पंचमकाल चल रहा है, इसके बाद छठवाँ काल आएगा; • ऐसा ज्ञान होता है।
५. भूत, भविष्य एवं वर्तमान के चौबीस तीर्थंकरों का ज्ञान होता है। ६. लौकिक व्यवहार में नए-पुराने पदार्थों का ज्ञान भी हमें इसी कालद्रव्य (व्यवहारकाल) के कारण ही होता है।
७. इस दुनिया में स्थित प्रत्येक पदार्थ में जो परिवर्तन होता है, उसमें प्रमुख निमित्त कालद्रव्य ही है। मैं अथवा अन्य कोई मनुष्य, पदार्थ-परिवर्तन में मुख्य निमित्त भी नहीं हैं - ऐसा यथार्थ ज्ञान होता है।
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८. किसी भी वस्तु के परिणमन में मैं निमित्त भी नहीं हूँ तो कर्ता होने का प्रश्न ही नहीं है ऐसे निर्णय से जीव को अकर्ता होने का सुवर्ण अवसर प्राप्त होता है। अकर्ता कहो अथवा ज्ञाता, मोक्षमार्गी बनना या सुखी होना - इन सबका एक ही अर्थ है। ९. कालद्रव्य के कारण ही यह विश्व, जीवादि छह द्रव्य, ज्ञानादि गुण, गुणों की पर्यायें - अनादि से हैं और अनन्तकाल पर्यंत नियम से होती रहेंगी ही ऐसा बोध प्राप्त होता है। १०. अपने दाँतों को मैंने अनेक प्रकार के मंजन के प्रयोग से मजबूत बनाकर रखा है। उस आदमी ने अपने दाँतों की ठीक व्यवस्था नहीं की, इस कारण ५० वर्ष की उम्र में ही उसके सब दाँत गिर गये; यह मान्यता योग्य नहीं है। दाँत का अपनी पात्रता / योग्यतानुसार बने रहना अथवा गिर जाने का कार्य होता है। दाँत के स्थिर रहने में कालद्रव्य मुख्य निमित्त है। आपके मंजन का प्रयोग करना वगैरह भी दाँत मजबूत रहने में गौण निमित्त हैं।
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कालद्रव्य - विवेचन
९९. प्रश्न - भाईसाहब! परद्रव्य के परिणमन में जीव को अथवा मुझे निमित्त तो रहने दो! निमित्त का भी निषेध क्यों करते हो? इतना कठोर होना अच्छा नहीं लगता, निषेध की बात अच्छी नहीं लगती ।
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उत्तर - पदार्थों के प्रत्येक परिणमन में कालद्रव्य ही मुख्य निमित्त है - ऐसा अनन्त सर्वज्ञ भगवन्तों ने बताया है; तथापि आपको निमित्त होने का विकल्प नहीं छूटता तो मत छोड़ो। अज्ञानी जीव, पर-पदार्थ के परिणमन में मैं निमित्त हूँ; ऐसा मुख से तो कहता है; तथापि अभिप्राय में अपने को उसका कर्ता मानने की मिथ्यात्वरूप तीव्र वासना रखता है।
प्रत्येक द्रव्य के परिणमन में उपादानकारण (मूलकारण) तो वह द्रव्य स्वयं है और निमित्तकारण कालद्रव्य है और अन्य बाह्य निमित्त अनेकानेक होते हैं ऐसा वस्तुस्वरूप है।
कालद्रव्य के सम्बन्ध में पंचास्तिकाय ग्रन्थ की गाथा १००-१०२ में तथा उनकी टीकाओं में भी अच्छा विषय आया है; जिज्ञासु पाठक इन प्रकरणों को अवश्य देखें।
यद्यपि काल को निमित्त तो माना गया है, तथापि इससे उसे बाधक या साधक नहीं माना जा सकता। साधारणतया पंचमकाल को मुक्ति के लिए बाधक माना जाता है - इस सम्बन्ध में 'जिनागमसार' के पृष्ठ २८८ का प्रश्नोत्तर, विशेषतया उपयोगी जानकर यहाँ प्रकरण के अनुसार अच्छा लगा; इसलिए आगे दे रहे हैं ह्र
१००. “प्रश्न – ‘पंचमकाल में मुक्ति नहीं होती' - शास्त्रों के इस कथन का क्या आशय है ?
उत्तर - वास्तव में कोई भी काल, मुक्ति में बाधक अथवा साधक नहीं है। शास्त्रों के उक्त कथन का आशय यह है कि भरतक्षेत्र का जीव, इस काल (पंचमकाल) में तीव्र पुरुषार्थ के अभाव में मोह-मुक्ति, जीवनमुक्ति अथवा विदेह - मुक्ति नहीं प्राप्त कर सकता; लेकिन दृष्टि-मुक्ति अवश्य प्राप्त कर सकता है। तीव्र पुरुषार्थ का अभाव, जीव का अपना दोष है; काल का नहीं ।